Book Title: Rupsen Charitra
Author(s): Jinsuri
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

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Page 17
________________ ( 15 ) वह उसे ही ग्रहण करे। जब मैं ताली मारू तो तुम जान लेना कि हमारी वस्तुएं बंट गई हैं। इसमें तुम संशय न कगे। - कुमार का कहा मान वे वहां से चलते हुए आपस में कहने - लगे। अब रूपसेन हमारे वश में पूर्णतया श्रागया है। ऐसे कह वे चारों ही अलग 2 स्थानों पर जाकर कुमार की अोर पीठ करके बैठ गये! कुमार ने उनके जाने के पश्चात् ही पादुकाओं को अपने पाओं में धारण किया। गुदड़ी और पात्र अपनी पीठ पर बांधे, और दण्ड हाथ में लेकर तुरन्त ही कहा, पादुके ? "मुझे शीघ्र ही कनकपुर पहुंचाओ"। इतना कहना था, कुमार आकाश में विमान वत् उड़ने लगा। आकाश मार्ग से जाते हुए कुमार ने योगियों से कहा-"दुष्टो योगियों के नाम पर कलंक का टीका लगाने वालो! तुम सब मिलकर मुझसे छल करना चाहते थे / परन्तु मेरी सत्यता से तुम्हीं ठगे गये"। इस पर योगियों ने बहुत पश्चात्ताप किया और कहने लगे। अरे हम तो इसे ठगना चाहते थे, परन्तु इसने हम को हो / ठग लिया, ऐसे प्रलाप करते हुए योगी दुःखित हो बन वन ग्राम 2 में भिक्षाटन करने लगे। उन्हों ने वृत का निवास छोड़ दिया। ' इधर रूपसेन कुमार भी अपने पुण्योदय से कनकपुर के निकट एक बाटिका में उतरा और थोड़ी देर विश्राम करने के बाद बोला। पादुकाओं की परीक्षा तो हो चुकी, अब इस दण्ड की परीक्षा भी करनी चाहिये। यह सोच उसने चंपा के P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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