Book Title: Rupsen Charitra
Author(s): Jinsuri
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

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Page 51
________________ ( 47 ) संसार सागर से पार उतर ने के लिये श्री शत्रुक्षय तीर्थ यात्रा भी दुर्लभ है। यदि कोई उस यात्रा को कर पाता है तो संसार के आवागमन से कट जाता है। शास्त्र कारों का कथन है "एकैकस्मिन् पदेदत्त-शत्रुजय गिरि प्रति भव कोटि सहसाणां पातकानि प्रयान्ति हि" . अर्थात्-शत्रुजय पर्वत तीर्थ की अोर एक 2 पद रखने से कोड़ों ही भवों में किये हुये पातक दूर हो जाते हैं / श्री तीर्थ की यात्रा करने से मैल नहीं रहती / तथा तीर्थों के भ्रमण से जीव संसार में नहीं भटकता। तीयों पर खर्च करने से लक्ष्मी बढ़ती है। तीर्थों के अर्चन से किसी कर्म का बन्धन नहीं रहता। श्री जैनाचार्य ने और भी बहुत से उपदेश दिये। राजा मन्मथ ने भी दत्त चित्त होकर उपदेश सुने और उसी क्षण प्रतिज्ञा की, कि महाराज ! मैं अवश्य ही तीर्थ यात्रा करूंगा। राजा वहां से लौटकर अपने घर पाया, तथा दूसरे दिन ही परिवार सहित तीर्थ यात्रा को चला गया। राजा मन्मथ रास्ते में अनेक स्थानों में जिन पूजा श्रादि महोत्सवों को करता हुश्रा; श्री शत्रुजय पर्वत पर पहुंच गया। राजा ने परिवार सहित तीर्थ यात्रा की। श्री युगादि देव के मन्दिर में स्नानादि करके अष्टाहिक (आठ दिन) महोत्सव किया और वहां बहुत से वस्त्राभूषण दान दिये। श्री चतुर्विध संघ की भक्ति भावना से पूजा की। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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