Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्री श्री रूपसेन चरित्र . - -0 %3 D अनुवादक.. पन्नालाल शर्मा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________ // श्री वीतरागाय नमः // श्री रूपसेन चरित्र / ...... - Ur / ट्रैक्ट नम्बर-202 मूल लेखक :श्री जिनमार जी महाराज अनुवादक। पं० पन्नालाल शर्मा / प्रकाशक.. मंत्री श्री आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसायटी, अम्बाला शहर / DO बाबू तेलूराम मित्तल मैनेजर के प्रबन्ध सं . मोडल प्रिंटिंग प्रेस, अम्बाला में मुद्रित / वीर सं 2455 / विक्रम सं 1985 मूल्य ) 1 ईस्वी सन् 1926 श्रात्म सं३३ - 1 नागगागरसरि ज्ञानमन्दिर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________ Serving Jinshasan न JM MI ... ... // श्री पीतरागाय नमः // 1 080357 gyanmandir@kobatirth.o "श्री रूपसेन चरित्र"। -0 * रत क्षेत्र में मगध देशान्तर्गत राजगृह नगर में यादव * वंश के शिरोमणि श्री मन्मथराजा राज्य करते थे। *** उनकी सबसे बड़ी रानी का नाम मदनावती था / वे हमेशा ही न्याय पूर्वक प्रजा का पालन करते थे। - एक दिन वर्षा काल उपस्थित होने पर उनके नगर के निकटर्तीि शीतल-जला नामक सरिता जल से परिपूर्ण वहने लगी। . राजा क्रीड़ार्थ नदी में नाव डाल कर भ्रमण करने लगे। सी अवसर पर राजा ने नदी में अनेक वस्त्राभूषणों से सुशोभित एक महा पुरुष को देखा, तथा कुतुहल से अपनी व उस के पीछे लगा दी / राजा ज्यों 2 उस महानुभाव के पीछे जाता था, वह हानुभाव त्यों 2 उससे आगे बढ़ता तथा जल में डूबता जाता m; यहां तक कि थोड़ी देर में राजा को उस महानुभाव का त्रि शिर ही दोखने लगा। राजा ने यह देख कर तुरन्त ही वचार किया, “यह अवश्य ही कोई दैवी शक्ति है, इसे देखना हिये। इस तरह दौड़ धूप के बाद राजा ने देखा कि वह शिर हुत दूर जाकर जल में स्थिर हो गया। राजा तुरन्स ही उसके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________ पीछे भागा और केरापाश से उस शिर को ऊपर उठाया, तो राजा के विस्मय का पारावार न रहा; क्यों कि उसके हाथ में मस्तक मात्र था। राजा ने खिन्न होकर पुनः नदी की ओर देखा, तो समस्तक ही वह पुरुष उसी प्रकार जाता दीखने लगा। विस्मययुत राजा को विश्वास हो गया कि यह सव मुव कोई दैवीशक्ति है और कुछ नहीं। ___ तब राजा ने पूछा-"आप कौन हैं" ? उत्तर मिला-''मैं देव हूँ"। "तुम कौन हो" ? मन्मथ ने उत्तर दिया कि "मैं राजा हूँ"। तव वह शिर बोला “यदि तुम राजा हो तो तुमने मेरे साथ अन्याय क्यों किया? राजा की सब शरण होते हैं। मेरा शिर तुमने चोर की तरह क्यों पकड़ा? क्यों कि "दुर्बलानामनाथानां बालवृद्धतपस्विनाम् / ....... परैस्तु परिभूतानां सर्वेषां पार्थिवो गतिः" // अर्थात्-दुर्वज, अनाथ, वाल, वृद्ध तपस्वी, तथा दूसरों से सताये हुये को राजा के विना गति नहीं। . तुम पांचवें लोक पाल हो! यदि आप ही मेरा पराभाव करेंगे तो बस होलिया ? अतः श्राप मेरा मस्तक छोड़ दीजिये गा। राजा ने तुरन्त ही उसके मस्तक को छोड़ दिया। वह मस्तक तुरन्त ही हस्ती बन गया; राजा भी कुतुहल वश उस पर चढ़ बैठा। अब वह हाथी आकाश में उड़ा। राजा पृथ्वी पर रहने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________ वालों के कौतुक देखता जाता था। थोड़ी देर में वह हाथी एक घने जङ्गल में उतरा, और अपनी संड से राजा को नीचे उतार कर आप तुरन्त ही अद्दष्ट हो गया। विस्मित राजा वन में इधर उधर घूमने लगा। तब राजा की दृष्टि धर्माचार्य गुरुयों पर पड़ी। राजा प्रसन्न हो कर नमस्कार करने के लिये उनकी शरण में गया। गुरुओं ने भी राजा को यथोचित धर्मोपदेश दिया। . हे राजन् ! तू विषाद मत कर। धर्म की बातों में प्रमाद ___ को छोड़, क्योंकि मनुष्य देह, आर्यदेश, सव इन्द्रियों में चतुराई और अायु, यह सत्कर्मों के प्रभाव से हो मिलती हैं। यह तो पुण्य से प्राप्त हो जाय परन्तु वोधि रत्न की प्राप्ति सुदुर्लभ है। सबसे बढ़ कर जो कल्पवृत के समान धर्म की सेवा करता है वही इष्ट सुखों को प्राप्त करता है। धन सम्पत्ति जल तरंगों के समान नाशवती है। जवानी तीन चार दिन की पाहुनी है, श्रायु शरद ऋतु के मेघों की तरह चंचल है इस लिये धन को छोड़ धर्म की साधना करो। इत्यादि गुरूपदेश को सुन कर राजा को ज्ञान हुआ। राजा ने तुरन्त ही जिन धर्म की शरण ली, और गुरु से पूछने लगा “महाराज ! वह देव तथा हस्ती कौन था, जो मुझे यहां छोड़ कर चल दिया? इसी समय देव भी वहां आगया / गुरु ने कहा, यह तुम्हारा बान्धव है। यह पहिले गृहस्थ धर्म को आराधन करने से देवता होगया था। किन्तु अब तुम्हें राज्य लोलुप देखकर प्रतिबोध देने के लिये तेरे निकट पहुंचा और हस्ती रूप धर कर तुझे यहां तक लाया। .. ...... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________ . राजा मन्मथ वहुत प्रसन्न हो कर बोला-मैं आज धन्य हूं जो मैंने आपके दर्शन किये तथा धर्म-लाभ रूपी आशीर्वाद पाया। - गुरु महाराज ने राजा को पूर्णतया जैन पथ दिखाया और . कहा कि दत्त चित्त हो जैन धर्म को धारण करो जिस से तुम्हें मोत सुख को प्राप्ति हो। इस पर राजा ने खिन्न चित्त हो कर कहा "महाराज, मेरे घर में कोई पुत्र नहीं इस लिये धर्मारावन में एकचित्तता नहीं होती। मेरे बहुत से पुत्र हुए भी परन्तु कर्म योग से सब मर गये। अतः मेरो चित्त हर समय दुःख में व्यस्त रहता है। शास्त्र कारों का कथन है. "बालस्स माय मरणं भज्जा मरणं च जुबणा रमे बुढस्प पुत्त मरणं तिन्निवि गुरु आई दुक्खाई" . अर्थात्-चालक को माता के मरने का, जवान मनुष्य को पत्नी और वृद्ध को पुत्र के मरने का बहुत ही दुःख होता है / पुत्र के विना मेरो राज पाट सर्वथा व्यर्थ है"। * - राजा मन्मथ के प्रलाप को सुन कर गुरु महाराज ने कहा "राजेन्द्र ! शोच क्यों करते हो? धर्म के प्रभाव से तेरे पुत्र होंगे। राजा ने गुरु महाराज के बचनों से धयं धारण किया और गुरुत्रों को नमस्कार करके उसी देवता के श्राधार से वह अपने . नगर में पहुंचा। तथा उस देवता ने उसे लौटते समय सर्वरोग हरण करने वाला स्वर्ण का प्याला दिया और कहा कि इसमें डाल कर पिये गये जल से सब रोग दूर हो जायेंगे"-ऐसे कह कर देवता लौट कर अपने स्थान को चला गया।:::: P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________ स-कुशल श्राये हुये राजा को देख कर प्रजा बहुत प्रसन्न हुई तथा राजा ने उस देवता का और अपने जैन धर्म अंगी कार करने का सव हाल कह सुनाया। लोग बहुत प्रसन्न हुये और सब के सव जैन धर्म में स्थिर होगये। पति भक्ता पट रानी ने भी वैसा ही किया। देव पूजा तथा पंच परमेष्ठि का ध्यान करते हुये राजा के दो पुत्र पैदा हुए। राजा ने सोने के उस प्याले में उन्हें पानी पिलाया। फिर बड़े उत्सव किये, बहुत से वस्त्र भूषण दान दिये और रूपसेन तथा रूपराज उनके नाम रक्खे / शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह वे ज्यों 2 बढ़ते गये. त्यो 2 प्रजा उन्हें अधिक से अधिक प्रेम से देखने लगी. “स एव रम्यः पुत्रो य: कुलमेव न केवलम्पितुः कीर्ति च धर्म च गुणांश्चापि विवर्धयेत्" अर्थात्-संसार में वही पुत्र श्रेष्ठ होता है. जो केवल अपने कुल को ही नहीं. अपने पिता की कीति और धर्म तथा गुणों की भी वृद्धि करता है। राजा ने उन्हें विद्या अध्ययन के लिये पण्डित के पास छोड़ा-क्यों कि जिस मनुष्य ने बचपन में विद्या अध्ययन नहीं किया, जवानी में धन नहीं कमाया, और बुढ़ापे में धर्म नहीं किया. वह आयु के चौथे भाग में क्या करेगा। यद्यपि वे दोनों राज कुमार पूर्ण विद्वान हो गये, तथापि उन्हों ने विद्याभ्यास न छोड़ा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________ युक्तमेम "संतोष त्रिषु कत्तव्यः स्वदारे भोजने धनेत्रिषु चैव न कर्तव्यो दानेचाऽध्ययने त” / अर्थात्-मनुष्य को स्त्री में, भोजन में, और धन में संत्तोष करना चाहिये परन्तु दान-अभ्ययन और तप इन तीनो म संत्तोष न करना चाहिये। ___ कम से वे दोनों राज कुमार जवान होकर. विनय, विवेक और चातुर्य आदि गुणों से युक्त सव जगह प्रसिद्ध हो गये। राजां भी उन्हें यौवन सम्पन्न देख कर उनके लिये अच्छे कुल की कन्यायें तलाश करने लगा।। इधर मालव देश को धारा नगरी में प्रतापसिंह राजा राज्य करता था,। उसके बहुत से पुत्रों के पीछे सर्व कला कुशला एक पुत्री हुई, उस कन्या को विवाह योग्य होते देख राजा उसके विवाह की चिन्ता करने लगा। - एक वार राजा प्रतापसिंह के पूछने पर उसके मन्त्री ने कहा, "महाराज? राजा मन्मथ के दो पुत्र सर्व-गुण सम्पन्न सनने में आये हैं इसलिये आप अपनी पुत्री का सम्बन्ध उनमें से एक से करदें तो अच्छी बात है। राजा प्रतापसिंह तुरन्त ही इस नेक सलाह को मान गया; और मन्त्री को भेज कर उसने राजा मन्मथ से यह प्रस्ताव किया। राजा मन्मथ को यह प्रस्ताव रुचिकर प्रतीत हुया / उसने ज्योतषियों को बुला कर विवाह के सम्बन्ध में पूछा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________ उन्होंने देख कर कहा-"इस कन्या से विवाह करने से चौथे फेरे में कुमार की मृत्यु हो जावेगी" यह सुन कर राजा ने दुःखित होकर मन्त्री से सब वृत्तान्त कहा। वे बोले-सचिव ? अब यदि हम इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते तो हमारी मित्रता भंग होने की शंका है। प्रस्ताव स्वीकार करने पर पुत्र-मरण और कन्या वैधव्य की समस्या उपस्थित है। इस विषय में क्या करना चाहिये ? “मन्त्रो ने विचार कर उत्तर दिया-"महाराज ? यदि उचित प्रतीत हो तो कुमार रूप-राज से ही इस कन्या का विवाह कर दिया जावे"। राजा ने पुनः ज्योतिषियों से पूछा / उन्होंने उत्तर दिया-"राजन् ! रूप राज के साथ इसका विवाह योग्य बनता है"। * रूपराज के साथ निश्चित समय पर उस कन्या का विवाह होगया। रूपसेन के अविवाहित रहने पर भी रूपराज का विवाह लोगों को अयुक्त प्रतीत होने लगा। नगर में प्रसिद्ध हो गया कि रूपसेन में अवश्य ही कोई अवगुण है। रूपसेन को भी अपनी निन्दा का पता लग गया। वह मन ही मन दुःखी हो अपने मित्र से कहने लगा, मित्रवर ? पिता ने मेरे लिये अच्छा न जान कर ही उस कन्या का विवाह मेरे साथ नहीं किया। परन्तु लोग इस बात को न जान कर व्यर्थ ही निन्दा करते हैं। अत: मेरा विचार है कि मैं इन भूले हुये नगर वासियों को शिक्षा दूं। मित्र ने उत्तर दिया-"तुम्हारा यह विचार P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________ ठीक नहीं, तुम लोगों के मुंह को बन्द थोड़े ही कर सकते हो। नीच पुरुष दूसरों के दोषों का कथन किया ही करते हैं / इस पर आप को खेद न करना चाहिये। लोगों के निन्दा करने से आप का महत्व कम नहीं होता" / मित्र से विदा ले रूपसेन सोचने लगा, कि लोग मुझ पर हंसते हैं, मेरे दोषों को ही प्रकट करते हैं। मुझे अब यहां रहना योग्य नहीं। अपने मान की रक्षा के लिये मुझे विदेश चले जाना चाहिये, वहाँ मुझे मेरे पुण्यों के प्रताप से अवश्य सुख मिलेगा। यह निश्चय करके रात्रि में ही वह अपने नगर से चल खड़ा हुआ। कुमार रूपसेन जब नगर के बड़े फाटक पर पहुंचा, तो द्वार पाल ने उसे रोका और कहा-अर्ध रात्रि में श्राप के बाहर जाने का क्या कारण है। मैं श्राप को राजा की आज्ञा विना .. बाहर न जाने दूंगा। - कुमार ने द्वारपाल के हाथ पर एक स्वर्ण मुद्रा रक्खी और द्वार से बाहर हुश्रा। ___द्वार पार करते ही कुमार ने अपने घोड़े को पवन सदृश् दौड़ाया और तुरन्त ही एक घने जङ्गल में पहुंच गया। वहां उसने एक जैन मन्दिर देखा। उसकी परिक्रमा करके अन्दर प्रवेश किया। अन्दर जाकर उसने एक सर्व विघ्न हरने वाली तथा सर्व सुख देने वाली श्री पार्श्वनाथ भगवान की मूर्ती देखी। प्रसन्न मन से प्रणाम करके चैत्य वन्दन किया। एवं अनेक प्रकार से श्री पार्श्वनाथ भगवान् की स्तुति करके P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________ वह वहां से भागे चला / वहुत आगे जाकर उसने घोड़े को थका जान वहीं जङ्गल में छोड़ दिया, और श्राप तुङ्ग पर्वत के निकटवर्ती सहकार वन में विश्राम करने लगा। इधर राजा मन्मथ को पता लगा कि रूपलेन नगर में नहीं है। उसने दुःखित होकर उसे ढूंडने के लिये अपने सेवक भेजे, परन्तु कहीं भी उसकी सुध न मिली। नितांत सब संवकों ने राजा के आगे निवेदन कर दिया। राजा ने दुःखित होकर ज्यातषियों को बुलाया। ज्योतषियों ने अगले दिन उत्तर देने को कहा। अगले दिन अाकर कहा कि "महाराज हम रूपसेन के बारे में कुछ नहीं कह सकते और नाहीं श्राप पूछे। सुन कर श्राप को कष्ट होगा"। यह सुनते ही राजा मूलित हो गये, तथा थोड़ी देर के बाद सावधान होकर राजा ने जैनाचार्य को पूछा। जैना चार्य ने उत्तर दिया, "राजन्" मैंने पद्मावती देवी से पूछा। उसने उत्तर दिया है, कि कुमार रूपसेन परदेश गया हुआ है। वह बारह वर्ष के बाद धन सम्पत्ति स्त्री सहित अवश्य श्रावेगा इस में कुछ संशय नहीं। देवताओं का कहा हुआ अन्यथा नहीं हो सकता। यह सुनते ही राजा को बहुत दुःख हुया, वह कुटुम्ब सहित नित्यही दुःखी रहने लगा। रूप सेन को वह क्षण भर भी नहीं भुला सकता था। .. . उधर रूपसेन थोड़ी देर विश्राम करके फिर भागे चल दिया। थोड़ी दूर जाकर उसकी दृष्टि एक वृद्ध पुरुष पर पड़ी, वह ग्राम ग्राम में भिक्षा के निमित फिरता था। P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________ ___ कुमार ने वृद्ध को देख कर नमस्कार किया, वृद्ध ने आशीर्वाद देकर कहा "अहो ! तू राजा मन्मथ का पुत्र रूपसेन है (क्यों कि इस ने कई वार रूपसेन को अपने पिता की सभा में बैठे देखा था)। ___ कुमार ने वृद्ध से पूछा, "हे देव ? तुम इस समय कहां जारहे हो"। उसने उत्तर दिया कि मैं राजा मन्मथ के दरवार में जारहा हूँ। रूपलेन ने कहा जल्दी जाइये। वुद्ध ने पूछाकुमार! तुम इस समय कहां जा रहे हो?" रूपसेन बौलो-परदेश घूमने की इच्छा से जा रहा हूँ। वृद्ध-इस में अवश्य ही कोई कारण है. जो तुम अकेले __ परदेश जा रहे हो। रूपसेन-कारण तो कमी का है। / वृद्ध- तुम अवश्य ही क्रोधित होकर घर से निकले हो। तुम को अपने घर वापिस चलना चाहिये, बुद्धिमानों को क्रोध न करना चाहिये। वृद्ध के अनुरोध पर भी कुमार ने पीछे लौटना न चाहा। वृद्ध ब्राह्मण ने कुमार को फिर कहा-कुमार ? विदेश में बहुत दुःख होते हैं-तू कुमार है अपने घर को वापिस चल / परन्तु कुमार पूरे रङ्ग में रङ्ग चुका था। उसने कहा : संसार में समर्थों के लिये कोई भार नहीं है, उद्यागियों के लिये कुछ दूर नहीं है, विद्वानों के लिये कोई विदेश नहीं, मीठा बोलने वालों के लिये कोई दूसरा नहीं, अर्थात् सब ही P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 11 ) अपने हैं। इस लिये हे द्विजवर ! श्राप मुझे कनकपुर जाने का मार्ग बतायें।" कनकपुर जामे की वात सुन कर ब्राह्मण ने चौक कर. कहा “सुकुमार रूपसेन ! तुम कनकपुर जाने का नाम न लो! कनकपूर का रास्ता अत्यन्त भयंकर है"। कुमार ने कहा-क्यों? भय किस बात का है। वृद्ध ने कहा-मार्ग में एक बहुत पुराना वट का वृक्ष है, जिस का चार शाखायें चारों तरफ दूर 2 तक फैली हुई हैं। तथा उन चारों शाखाओं पर विद्या-सिद्ध . . चार योगी रहते हैं। वे लोगों पर उपद्रव करते हैं। तुम्हें उन के सामने न जाना चाहिये। इस लिये मैं कहता हूँ कि तुम बच्चे हो, कनक-पुर मत जायो। कुमार ने हंस कर कहा मैं वहां जाने में कोई भय नहीं मानता। क्योंकि मैं तो केवल पुण्य ही की शरण में हूँ। कर्म फल में ही मेरा दृढ़ . विश्वास है। विप्र ने कुमार को जव किसी तरह भी रोके रुकता न देखा, तो कहा-सावधान होकर जाना "शिवास्ते पन्थान : सन्तु :" कुमार ने ब्राह्मण को एक स्वर्ण मुद्रा दी और कहा, कि श्राप हमारे घर जाकर मेरा पता न देना। और आप गर्जता हुआ आगे बढ़ा। कनक-पुर जाने के लिये यद्यपि मार्ग कठिन था, तो भी कुमार अपने अभीष्ट देवता का स्सरण करता हुआ आगे जारहा था और कहता था: "नमस्कार समो मन्त्रः शत्रुञ्जयः समो गिरिः / वीतराग समो देवो न भूतो न भविष्यति” / P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________ . ( 12 ) . . अर्थात- नमस्कार मन्त्र के बराबर कोई मंत्र नहीं शत्रंजय के सदृश कोई तीर्थ पर्वत नहीं तथा वीतराग भगवान् - के समान कोई देवता न हुआ है और न होगा। : कुमार को मार्ग में अच्छे 2 शकुन हुए। चलते 2 कुमार बहुत दूर निकल गया और जव मध्यान्ह का समय हुया, तो उस को तृषा ने व्याकुल कर दिया। . कुमार एक स्थानपर वैठ कर सोचने लगा कि विदेश में बहुत कष्ट है, मैंने अभी चार सौ कोस जाना है। परन्तु तृपा अभी से व्याकुल करने लगी है। नितान्त कुमार थक कर नीम के वृक्ष के नीचे बैठ गया। वृक्ष की छाया से कुमार का हृदय कुछ शान्त हुयां और उसने सोचा कि यहां बैठे रहने से मार्ग कम थोड़े ही होता है। इस लिये उठा और श्रागे को चल दिया। कुछ दूर जाने पर वह एक नदी के किनारे पहुंचा और उसने वस्त्र द्वारा छान कर जल पिया / नदी को पार करके कुपार थोड़ी दूर जाने पर उस वट वृक्ष के पास पहुंचा, और सावधान हो पंचपरमेष्टि मन्त्र का जाप करते हुए आगे बढ़ने लगा। उन चारों योगियों ने वृक्ष पर बैठे 2 दूर से कुमार को श्राते देख आपस में मन्त्रणा की। "यह जो 'पाने वाला व्यक्ति है अवश्य कोई महापुरुष प्रतीत होता है। अतः इस अवश्यहो अपने वश में करना चाहिये। वे चारों योगो कुमार की ओर चल दिये। जब कुमार ने इन योगियों ' को अपनी ओर आते देखा। उस ने तुरन्त ही जान लिया कि येह वे हो योगी होंगे। इतने पर भी वह तनक नहीं घबराया और सोचने लगा, कि यहां पर कोई चाल चलनी चाहिये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 13 ) कुमार के तरकश में पांच वाण थे, उसने तुरन्त ही तरकरा से एक वाण लिया और योगियों के सामने तोड़ डाला। जब कुमार ने बाण को तोड़ कर पृथ्वी पर डाल दिया, तब योगियों ने कुमार से पूछा कि तुमने बाण क्यों तोड़ दिया। कुमार ने उत्तर दिया, मैंने सुना था कि तुम पांच हो, इस लिये तुमारे वध के लिये मैंने पांत्र बाण रक्खे थे। अब तुम मेरे सामने चार पाये हो। इस लिये मैंने पांचवां वोण व्यर्थ समझ कर तोड़ डाला है। इस वन में मैं तुम्हारी बहुत दिनों से खोज करता रहा। परन्तु अकस्मात् तुम श्राज स्वयं ही प्राप्त हो गये हो। ____ योगियों ने सोचा कि कुमार अवश्य ही कोई महान शक्ति है। इसे किसी तरह छल कपट से वश में कर जाल में फंसाना चाहिये। वे बोले :__ हे सत्पुरुष ? हम तो तुझे सुजन जान तेरे पास आये है और तू हमें बुरा समझता है। हम योगी हैं तथा संसार का त्याग कर निर्जन वन में रहते हैं। ऐसे कह सुन कर वे योगी रूपसेन कुमार को उस वट वृक्ष पर ले गये, और कुमार से वैराग्य भरी बातें करने लगे। कुमार ने उन से पूछा ? कि तुम्हें व्रत धारण किये कितने वर्ष हो चुके हैं। वे बोले हमें बत ग्रहण किये पांच सौ वर्ष हो चुके हैं। कुमार ने कहा, तव तो तुम्हारे दर्शनों से मेरा भी जन्म सफल हो गया है। ऐसे वचनों से कुमार भी उन्हें सन्तुष्ट करता रहा। इस पर उन्हों ने उस का विश्वास दिलाते हुये कहा, हे कुमार ? तू अाज से हमारा धर्म भाई रहा हम तुझ से कोई छल न P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 14 ) करेंगे और भी जो गुप्त बातें हैं सब तेरे आगे कहते हैं। हम चारों ने इस वृक्ष पर रह कर छै वर्ष तक एक देवता का अाराधन किया। वह देवता हम पर प्रसन्न हो गया और उसने हमें वरदान में चार वस्तुएं दीं। चारों चीज़ कुमार के आगे रख वे कहने लगे-हमारा इन पर विवाद है, इस लिये हे कुमार तुम जैसे चाहो यह चारों चीजे हमें बांट दो। . प्रथम-एक दण्ड (डण्डा) है, जिसके मारने से मृत वस्तु ... . पुनर्जीवित हो जाती है। दसरा-पात्र है जिसके द्वारा एक समय में एक लक्ष आदमियों को भोजन मिल सकता है। तीसरे-पादुकायें हैं जिन पर सवार होने से आदमी जहां चाहे जा सकता है। चौथे-गुदड़ी है जिसको फैलाने से पांच सौ स्वर्ण मुद्रा एक दम गिरती हैं। - कुमार रूपसेन ने चारों वस्तुओं के प्रभाव को भली भांति जान लिया, और योगियों से कहा ! यदि तुम चरों ही मेरा कहा मानों-तो मैं चारों को ही बराबर 2 बांट सकता हूं। किसी को भी न्यूनाधिक कहने का अवसर न मिलेगा। इस महान् कार्य में आप लोग मेरा चातुर्य देखें। योगी बोले हमें तुम्हारा किया स्वीकृत है। - यदि तुम्हें मेरी बात स्वीकार है तो तुम यहां से दूर जाकर मेरी तरफ पीठ करके बैठो। जिसकी तरफ में जो वस्तु फैकं P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 15 ) वह उसे ही ग्रहण करे। जब मैं ताली मारू तो तुम जान लेना कि हमारी वस्तुएं बंट गई हैं। इसमें तुम संशय न कगे। - कुमार का कहा मान वे वहां से चलते हुए आपस में कहने - लगे। अब रूपसेन हमारे वश में पूर्णतया श्रागया है। ऐसे कह वे चारों ही अलग 2 स्थानों पर जाकर कुमार की अोर पीठ करके बैठ गये! कुमार ने उनके जाने के पश्चात् ही पादुकाओं को अपने पाओं में धारण किया। गुदड़ी और पात्र अपनी पीठ पर बांधे, और दण्ड हाथ में लेकर तुरन्त ही कहा, पादुके ? "मुझे शीघ्र ही कनकपुर पहुंचाओ"। इतना कहना था, कुमार आकाश में विमान वत् उड़ने लगा। आकाश मार्ग से जाते हुए कुमार ने योगियों से कहा-"दुष्टो योगियों के नाम पर कलंक का टीका लगाने वालो! तुम सब मिलकर मुझसे छल करना चाहते थे / परन्तु मेरी सत्यता से तुम्हीं ठगे गये"। इस पर योगियों ने बहुत पश्चात्ताप किया और कहने लगे। अरे हम तो इसे ठगना चाहते थे, परन्तु इसने हम को हो / ठग लिया, ऐसे प्रलाप करते हुए योगी दुःखित हो बन वन ग्राम 2 में भिक्षाटन करने लगे। उन्हों ने वृत का निवास छोड़ दिया। ' इधर रूपसेन कुमार भी अपने पुण्योदय से कनकपुर के निकट एक बाटिका में उतरा और थोड़ी देर विश्राम करने के बाद बोला। पादुकाओं की परीक्षा तो हो चुकी, अब इस दण्ड की परीक्षा भी करनी चाहिये। यह सोच उसने चंपा के P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________ सूखे वृत पर उस दण्ड को तीन वार मारा। वस दण्ड का तोसरी बार सूखे वृक्ष पर लगना था कि वह तुरन्त ही हरा भरा हो गया। तब कुमार ने समस्त वाटिका को हरा भरा कर दिया। आस पास के जाने वालों ने यह दशा देखी, तो श्रापस में कहने लगे, कि रात 2 में यह क्या चमत्कार हुआ जो सूखी हुई वाटिका हरी भरी हो गई। तुरन्त ही उसके मालिक से इसका भेद पूछा। माली ने पहिले तो इस बात को व्यर्थ समझा। निदान ! जब शहर के सभी आदमी उसके पास आकर हर्ष सन्देश देने लगे तो उसने अपनी पत्नी को परीक्षा करने के लिये वाटिका में भेजा। मालिन ने वहां जाकर देखा तो उसके हर्ष का पारावार न रहा। उस ने यह भी देखा कि एक सुकुमार एक वृक्ष के नीचे पड़ा सो रहा है। मालिन कुमार को देखते ही जान गई कि यह सब कृत्य इसी ही महानुभाव का है। इसने ही मेरी वाटिका को हरा भरा किया है। उसने वाटिका में से अच्छे 2 फूल चुन कर एक सुन्दर हार बनाया। जय कुमार निद्रा से जागा, तो सन्मान् पूर्वक वह हार कुमार के गले में डाल दिया / कुमार ने उस हार के उपलक्ष में मालिन को एक वर्ण-मुद्रा दे दी। सुवर्ण मुद्रा को पाकर मालिन बहुत प्रसन्न हुई और कुमार से कहने लगी "महाराज हमारे ग्रहो! भाग्य हैं, जो आप यहां पधारे हैं। अब श्राप .. मुझ किंकरी के घर चले।" . कुमार ने मालिन की बात सुनकर अपने मन में सोचा कि यह सब कुछ धन का कारण है, नहीं तो यह मुझे साथ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________ जाने को क्यों कहतो"। अस्तु मालिन के बहुत प्राग्रह पर रूपसेन मालिन के साथ होलिया। मालिन ने कुमार को ले जाकर अपने घर के द्वार पर विठा दिया और बाप अन्दर अपने पति से कुमार के अन्दर श्राने की आज्ञा लेने गई / मालिक अन्दर कुढ़ा बैठा था. उसने तुरन्त ही ताड़ना देते हुए अपनी पत्नी से कहा-दुष्टे? तू अच्छा बुरा कुछ नहीं देखती, जो आया झट घर में ले घुसी। इस पर मालिन ने विनय पूर्वक कहा "स्वामिन् ! श्राप क्रोध क्यों करते हो? यह हमारे अतिथि हैं। इन की कृपा से ही हमारा वाग हरा भरा हुआ है। - दीनार दिखा कर कहा “यह इस कुमार ने दी है"। दीनार को देखते ही माजी के मुंह में पानी भर आया और अपनी स्त्री से बोला तू शीघ्र ही उसे (कुमारको) अपने घर में श्राश्रय दे। माली भो कुमार को अन्दर ले आया और बोला:- .. एह्या गच्छ समाविशासनमिदं प्रीतोऽस्मिते दर्शनात् ... का वार्ता अति दुर्बलोऽसि च कथं कस्माच्चिरं दृश्यते / इत्येवं गृहमागतं प्रगयिनं ये प्रश्रयन्त्यादरःस्तेषां युक्त मशंकितेन मनसा गन्तुंगृहे सर्वदा / " अर्थात् -प्रायो, यहां बैठो, मैं श्राप के दर्शनों से प्रसन्न हूँ . क्या बात है ? देरसे देंखे गये हो और कुछ दुर्बल ... प्रतीत होते हो-इस तरह के वचन जो आदमी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________ 1 ) श्रावर से पूछते हैं, उनके घर निःशांक भाव से जाने में भी कोई आपत्ति नहीं। .. अच्छे श्रादमियो का परदेश में माम ही होता है। कुमार ने भी उस घर में प्रवेश कर अपनी चारों वस्तुओं को धान्य कर एक कोने में रख दिया और श्राप नित्य ही नगर में जाता, तथा नगर का कुतुहल देखता। संभ्या होते ही, मालिन के घर प्राजाता। . . . . . - जब कुमार को वहां रहते बहुत दिन हो गये तव एक दिन मालिन ने कुमार की उस गांठ को उठा कर खोला। वस्तुएं देखते ही सोचने लगी, यह वस्तुएं तो योगियों के पास होतो हैं। यह (कुमार) अवश्यही कोई ठग यो चोर है। इसने ठगने के लिये ही मुझे, सोना दिया था। यदि यह मुझे छल कर मेरे बालकों को कहीं ले जायेगा तो मैं क्या करूंगी। इसे किसी तरह अपने घर से निकाल देना चाहिये। मालिन ने तुरन्त ही रूपसेन का सय सामान अपने घर के पछवाड़े डाल दिया। जब कुमार सनश समय बाहर से घूम कर पाया, तोमालिन उसके साथ कलह करने लगी। -: "कुमार ने कहा-वहिन ? तू मेरे साथ कलह क्यों करतो है। क्या श्राज तेरे मन में किसी ने भ्रम डाल दिया है, जिससे तू मेरे साथ लड़ती झगड़ती है"। मालिन ने कहा तू धूर्त है। मैं आज तक तेरे भेद को न पा सकी। "तुझ जैसे धूतौ के साथ जो भी वर्ताव करते हैं, वे अत्यन्त मूर्ख हैं"। "तूने मुझे धूर्त क्यों जाना"-कुमार ने अाग्रह पूर्वक मालिन से पूछा। इस पर मालिन ने कड़क कर जवाव दिया। सुन! ..:. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________ "मुख पद्मदलाकार वाचश्चन्दन शीतला... हृदयं कर्तरी तुल्यं त्रिविधं घूत लक्षणम् / " अर्थात्-संसार में जिस पुरुष का मुख पद्मपत्र के समान * और वाचा चन्दन वत् शीतल हो, मन कैंची के - समान हो, ऐसे तीन लक्षणों वाले धूत होते हैं।. . : कुमार बोला, "मैंने तेरे साथ क्या ठगी की" इस पर मालिन ने कड़क कर कहा! "तू धूर्त है, मैंने आज तेरी गठड़ी को खोल कर देखा था। उससे प्रतीत होता है कि तू अवश्य ही धूर्त है, इसलिये अब तू मेरे घर में नहीं रह सकता। अपने रहने के लिये कोई और स्थान देख 1 . श्राज से पीछे तू मेरे घर कभी न पाना"। कुमार ने कहा-वहिन ? “प्रतीत होता है कि तुझे किसी ने बहका दिया है। अस्तु यदि तू मुझे धूर्त ही मानती है तो कृपया मेरो वस्तुएं मुझे देदे। जिससे मैं अन्य स्थान पर चला जाऊं"। ___ कुमार की बात मुन कर मालिन ने उत्तर दिया- "कि मैं ने तेरी सब वस्तुएं घर के पीछे डाल दी हैं, वहां से लाकर देती हूँ"। मालिन गई और घर के पछवाड़े से चारों वस्तुयें लाकर कुमार को देदीं। अपनी चारों वस्तुओं को पाकर कुमार ने ' मालिन से कहा- "देख मैं इन वस्तुओं का महत्व तुझे दिखाता हूँ। ऐसे कह कर कुमार ने उस गुदड़ी को. फैला दिया / गुदड़ी का फैजना था कि उसमें से तुरन्त ही पांच सौ सुवर्ण : मुद्रा पृथ्वी पर गिरी। कुमार ने सव मुद्रा मालिन को दे कर . कहा कि मैं तेरे मकान में ठहरा हूँ, तू ने इन को किराये में समझना। . . . . . . ......... : ......... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________ (20 ) जब मालिन ने अपने आगे पांच सौ अशफियों का ढेर देखा तो अपने किये पर पछताने लगी और कुमार के आगे हाथ जोड़ कर बोली, महाराज मैं भूल गई / श्राप मेरे अपराध को क्षमा करें और श्राप अवश्य ही मेरे घर में रहिये / मैं . श्रीज से पीछे कभी आप का अपमान न करंगी" / इस पर कुमार ने सोचा, "यह सब धन का प्रभाव है"। कुमार रूपसेन चलने को तैयार हुए / परन्तु मालिन ने कुमार का सव सामान छीन कर अपने घर में डाल लिया और आप कुमार के पांओं पर गिर पड़ी और बोली- “कुमार ! आज से तू मेरा वन्धु है। इसके भगवान् साक्षी हैं"। कुमार फिर उसके घर में सुख से रहने लगा और एक दिन अपनी मूर्खता से उसने उन तीनों वस्तुयों का प्रभाव भी मालिन के आगे प्रकट कर दिया / . . . . . . . . . - एक दिन कुमार और मालिन अपनी छत पर बैठ कर कनकपुर की रचना देख रहे थे / कुमार ने अपने निकट हा सात मंज़िलों वाला एक महल देखा। रूपसेन ने मालिन से पूछा / मालिन ने कहा यह कनकपुर के राजा का महल है। इस नगर में कनक भ्रम नाम वाला राजाराज्यं करता है। उसकी पट रानी का नाम कनक माला, तथा पुत्री का नाम काकवती है। वह लड़की विद्या प्रादि 'गुणा से अंलंकृत साक्षात् सरस्वती की तरह है। सकल गुण युक्त तथा "64 कला में निपुण है / : . इसी महल में कनकरती रहती है। इस महल के लीनं सौ साठ 360 द्वार और चौरासी 4 खिड़किये हैं। कुमारी P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________ (. 21 ) कनकवती नित्य ही एक द्वार खोलती है और नगर की रचना देखती है। राजा की आज्ञा के विना वह कहीं बाहर नहीं जासकती। तथा मैं नित्य ही कुमारी के पास पुष्प लेकर जाती हूँ"। कुमार ने कुतुहल से पूछा, “वहिन ! यह हमारे सामने वाला द्वार किस दिन खुलेगा" / मालिन ने उत्तर दिया "यह मैं नहीं जानती"। जब कुमार और मालिन छत पर बैठे वातें कर रहे थे, उसी समय कुमार के सन्मुख वाला द्वार ही लड़की ने खोला / कुमार प्रसन्न मन उधर देखने लगा और अपने भाग्य को सराहता हुया वोला, "हे जीव ! यदि संसार में मनो वांच्छित फल पाना है तो पुण्य कर्म कर, क्यों कि पुण्य . कर्म के विना रम्य वस्तुओं के पाने का उद्योग करना व्यर्थ है"। कुमारी की दृष्ठि भी रूपसेन कुमार पर पड़ी। दोनों की / द्रष्ठि आपस में मिल गई; परस्पर स्नेह भी उत्पन्न होगया। / कनकवती ने सोचा-"पिता जी मेरे लिये सदा ही वर अन्वेषण करते रहते हैं। यदि मेरे पिता इस कुमार के साथ मेरा विवाह करदें तो कैसी अच्छी बात है"। तथा उसने उसी क्षण प्रतिज्ञा भी की, "या तो मेरा पाणि-ग्रहण कुमार से होगा नहीं तो इस जीने से मरना ही भला है"। प्राक् पुण्य के प्रभाव से कुमार रूपसेन के मन में भी वैसी ही अभिलाषा हुई। दोनों के दूर होने पर भी परस्पर स्नेह का संचार हो ही गया। तथा दोनों के मन में मिलने की इच्छा बलवती हुई। वह उस खुले द्वार में बैठी कुमार का ही आराधन करती रही। ... इधर कुमार ने भी जैसे तैसे उस दिन को व्यतीत किया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________ और रात्रि में सु-सजित हो कर पादुकाओं को पहन कर घड तुरन्त ही कुमारी कनक वती के मन्दिर में पहुंचा। कुमार को अपनेघर श्राश देख कुमारी के हर्ष का पारावार न रहा, वह कुमार का शिष्टाचार करने के लिये उठी। कुमार के दर्शन मात्र से कुमारी का मन प्रफुल्लित हो गया। उसने कुमार की कुशलता पूल उन्हें अच्छे स्थान पर बिठाया और कहने लगी-"स्वामिन् ! श्राप यहां तक कैसे प्राये? मेरे पिता ने मेरी रक्षा के लिये महल के चारों ओर 7 सात सौ पहरे दार छोड़ रखे हैं सो द्वार-मार्ग से श्राना तो कठिन ही है" / कुमार बोला-"मैं विद्या वल से चाहूँ जहां जासकता हूँ"। (यदि यह मेरा स्वामी हो जावे तो अहो भाग्य !) ऐसा विचार कर कुमारी रूपसेन से कहने लगी:- . .. .. . ... ....... ____ "हे सस्पुरुष क्या श्राप मेरे साथ विवाह करके मुझे कृतार्थ करेंगे"! कुमार बोला, मैं विदेशी ई, तू राज कन्या है, मेरा तेरा सम्बन्ध कैसे हो सकता है? * पतः "ययोर सम वित्तं ययोरेव समं कुलम् / . तयोमैत्री विवाहश्च नतुपुष्ट विपुष्टयो" अर्यात्-मैत्री और विवाह उनका ही परस्पर हो सकता है जो दोनों ही धन तथा कुल में बराबर हों।... . : छोटो के साय बड़ों का निभाव होना कठिन ही है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________ कुमारी ने खेद प्रकट करते हुए कहा "वामिन् ! श्राप के बिना मेरा निर्वाह कठिन है"। - जब कुमार ने पूरी तरह जान लिया कि इस का निश्चय लिया। तुरन्त ही चार कलश रख वेदी तैयार की तथा दीपक को साक्षो करके दोनों ने परस्सर पाणि ग्रहण कर लिया सत्पश्चात् कुमार माजिन के घर पाकर सो गया। कुमार रूपसेन नित्य ही गुप्त रीति से कनकवती के पास जाता रहा। कनकवती के महज में रहने वाली दासियों को कुमारी को पवित्रता पर संदेह हुआ। उन्हों ने रानी से और उसने राजा के आगे निवेदन कर दिया। . . . . . : . राजा ने क्रुद्ध हो तुरन्त ही सव पहरे दारों को अपने पासं पुलाया और पृथक् 2 सबको ताड़ फाड़ कर पूछना प्रारम्म किया। उन्होंने निवेदन किया कि हमने किसी को पाते. जाते नहीं देखा" * राजा ने क्रोव के श्रावेश में श्राज्ञा दी कि इन 7 सात सौ पहिरे दारों को बांध कर तब तक भोरे में डालदो जब तक यह चोर का पता न बतावें। दूतों ने भी बहुत छान बीन की परन्तु कोई पता न चला. और .नाहीं चलना था। निदान राजा ने सात सौ पहरे दारों को ही चौराहे .पर प्राण-दण्ड की आशा देदी। . . . . . . - श्राक्षा की देर थी, नगर भर में दुहाई मव गई / लोग कहने लगे कि क्या कोई नगर में ऐसा पुरुष नहीं, जो इन सात खौ निरपराधियों की जान बचा"। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________ . ( 24 ) उस नगर में वेश्याओं के सात सौ घर थे। सव वेश्याओं ने राजा की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया-“राजन् ! श्राप इन निरपराधियों को छोड़ दीजिये और यह महान् कार्य हमारे सुपुर्द करें। हम अपराधी को पकड़ कर अवश्य हो श्रापकी सेवा में उपस्थित करेंगी। यदि अन्यथा हुया तो श्राप हमें एक मास के बाद शूली पर चढ़ा सकते हैं"। राजा ने इस बात को स्वीकार कर उन सात सौ जवानों को छोड़ दिया / नगर में उनकी बहुत प्रशंसा होने लगी। / वेश्यायें उसी दिन से अपराधी को ढंडने लगीं। पर उस का कहीं पता न चला। नितान्त एक वृद्ध वेश्या ने अपनी चतुराई से कन्या के सोने वाले कमरे में सब जगह सिन्दूर डाल दिया, तथा पहिरे दारों को भी चौकन कर दिया। रूपसेन नित्य ही आता जाता था। वैसे ही आज भी रात्री में पाया / कुमारी कनक वतीने सिन्दूर तथा वेश्याओं की बात कह सुनाई। रूपसेन ने कुमारी को तसल्ली दो; पुन: मालिन के घर आकर कपड़े बदल डाले। प्रातः ही चौराहे पर धूमने लगा। इधर वेश्यांये भी लिप्त पदोंवाले मनुष्य का अन्वेषण कर रहीं थीं। रूपसेन भी कुतुहल देखने के लिये उन वेश्याओं के साथ हो लिया। वेश्याओं ने सब घर खोज' डाले परन्तु चोर का कहीं पता न लगा। निदान इसी दौड़ धूप में 26 दिन व्यतीत हो गये। वेश्याओं को अपनी जान की फिकर हुई तथा सव ही अपनी प्रतिज्ञा पर पछताने लगी और कहने लगी कि हम तो केवल अपनी कीर्ति के लिये, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________ आ श्रीकैलाराराागररूरि ज्ञानमन्दिर 8so! श्रीमहावीर अम्यधना केन्द्र -फोवा. (गाधीनगर) पि 382009 सात सौ जवानों की जान बवाना चाहती थीं परन्तु यह नागहानी श्राफ़त हम पर ही टूट पड़ी। अब हम इस कर दुःख से किस तरह छूट सकती है ? जब तीस दिन पूरे हो चुके तो राजा के क्रोध का पारावार न रहा क्योंकि सात सौ वेश्यायें भी चोर व्यक्ति का पता न लगा सकीं। तुरन्त ही उन के लये शूली की आज्ञा देदी गई। दूतों को कह दिया गया कि "इन का घर दर सब हमारे खज़ाने में भेज दो तथा इस विषय में दोबारा पूछने की कोई आवश्यकता नहीं"। राजा के इस आदेश को सुन कर सभा में उपस्थित सभी सजन चिन्ता करने लगे। ___ समस्त नगर में प्रसिद्ध हो गया. कि पाप तो किसी ने किया होगा, परन्तु अनर्थ सात सौ वेश्याओं का होने को है। मन्त्रियों ने भो राजा से बहुत कुछ कहो सुना कि श्राप स्त्रियों को प्राण दण्ड न दें यह शास्त्र से विपरीत है। .. राजा ने कुपित होकर कहा-“सचिवाण ! इस विषय में हम से कुछ मत कहो" / मन्त्रियों का अपमान करके राजा ने अपनी आज्ञा को वापिस न लिया / ..: - उधर चौराहे पर उन सात सौ वेश्याओं को ले जाया गया। लोग वहां से दूर भाग रहे थे और कहते जाते थे कि अपराधियों के पास खड़े होना युक्त नहीं। रूपसेन. कुमार भी घूमता फिरता वहां आया और यह कुतुहल देख लोगों के हाहाकार को सुन कर तथा चौदह सौ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 26 ) जीयों के वध को जान कर, उसके मन में दया का संचार हुया। वह सोचने लगा कि मेरे कारण हो इन सब को दुःख हो रहा है। क्यों न मैं अपने प्राणों से इनकी रक्षा कर / मैं ने कमा इल संलर में सदा रहना है ? . . "हमेशा के लिये रहना नहीं इस दारे फानी में- कुछ अच्छे काम करलो चार कि की जिन्दगानी में। वहा ले जाएगा इक दिन यह दावार फना सबकोरुकावट या नहीं संतो कभी इनकी रवानी में। कयाम इल जा नहीं सब व करजी दुनियां सेकोई बचपन कोई पीरी कोई अहद जवानी में ! क्षण भर सोच कर रूपम भागात्रामालिंग के घर गया और उन सिंदूर भरे वस्त्रों को धागण कर शीघ्र हो छोराहे पर पहुंचा। वहां से प्रतिहारी द्वारा गाजा के पास खबर पहुंचाई "कि आपके दर्शन करने को कोई विदेशी आया है। राजा को याज्ञा से रूपसंन तुरन्त राज सभा में लाया गया। कुमार सभा में श्राकर दिये हुए स्थान पर बैठ गया / राजा ने तेजलो कुमार के मुंह को एक टक देखा / कुमार का मुल तोहुए इन्दन की तरह बक रहा था। राजा ने सोचा शिबह अवश्यहो कोई विद्याधर, देव कुमार, सूर्यपुत्र, या चन्द्र दुभ है। ....... ___वहां बैठी हुई उस वृद्ध वेश्या ने कुमार रूपलेन के सिर भरे कपड़ों को देखकर राजा के कान में निवेदन किया, महाराज ! "यहो तो वह अपराधी है। राजा ने कहा-"तू P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________ किस तरह जानती है" वेश्याने तुरन्त ही रूपसेन के कपड़ों पर सिन्दूर के निशान दिखायें। राजा ने विल्मिंत होकर कुमार से पूछा "क्या वेश्या जो कुछ कहती है सत्य है" वह वोला हाँ गाजन् ! सब सत्य है आप इन सब को छोड़कर मुझ अकेले को ही फांसी की आज्ञा दें। क्यों कि में ही अपराधी हूँ"। सभा के लोग कुमार के साहस को देख कर दंग रह गये और परस्पर कहने लगे कि यह महानुभाव कहां से अाया है, यह बड़ा साहसी है! मरने के समय भी इस के मुख पर चिन्ता का नाम तक नहीं। . .::.. __राजा ने कहा-"सभा में यह निर्लज होकर मेरे सामने बोलता है, अतः अवश्य ही चोर है। दूतों को तुरन्त ही आज्ञा दी कि इस रूपसेन को चौराहे पर ले जाया और फांसी देवो / तथा शेष सब को छोड़ दो। . श्राशा की देश थी-कुनार को तुरन्त ही चौराहे पर लेगये / सात तो वेश्यायों तथा लात सौ पहरे दारों को छोड़ दिया गया तथा कुमार को समस्त नगर में शुमाकर फांसी दे दी गई। ___ कुमार को शूली होने के उपरांत मालिन को भी पता लगा। वह बहुतं शोक प्रकट करने लगी, “कि राजाले बड़ा पाप किया; जो एक विदेशो को शूली चढ़ा दिया। इस तरह कुमार के गुणों को सरण करती हुई बह वहुत रोई धोई। रोने धोने में ही मालिन ने तमाम दिन व्यतीत किया। .. रात्रो में मालिन अपने पति से कहने लगी। पतिदेव ?. उस विदेशी ने हमपर बहुत से उपकार किये हैं। इस लमय P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________ वह मर गया है परन्तु उसका दण्ड हमारे घर में विद्यमान है, श्राप उस दण्ड को लेकर वहां जाओ और तीन बार उस मृतक शरीर पर दण्ड लगायो; वह कुमार अवश्य ही जीवित हो जावेगा। इस में कोई सन्देह नहीं, केवल साहस की श्रावश्यकता है, आप इतना प्रत्युपकार करें। माली ने इस बड़े भाषण को सुनकर उत्तर दिया, “प्रिये ! . तुम सत्य कहतो हो, परन्तु वहां जाना बड़ी विपत्ति का कारण है। यदि मैं वहां जाऊं और मुझ को कोई देखले तो मुझ पर विपत्ति अवश्य ही टूट पड़े। पति का टका सा जवाब सुन कर मालिन स्वयं वहां गई। उसने वहां जाकर देखा कि रूपसेन के गले में फांसी पड़ी है तथा कुमार रूपसेन बुलाने पर भी नहीं बोलता / मालिन ने तुरन्त ही मृतक शरीर पर तीन वार दण्ड लगाया। दराड का लगना था कि कुमार तत्क्षण "जय जिनेन्द्रदेव" कह कर उठ खड़ा हश्रा, और कहने लगा कि आज तो बहुत निन्द्रा आई। मालिन ने कुमार को सव वात कह सुनाई। कुमार ने भी स्मरणकर मालिन के गुणों का गान किया। यह वोला-"बदिन ? मैं तेरा यह उपकार कभी न भूलूंगा, तूने अाज मुझे जीवन दान दिया है"। मालिन कुमार को लेकर अपने घर चली गई। ..... माली ने जीवित कुमार को देखकर अत्यन्त हर्ष प्रकट किया। कुमार से कहने लगा। “कुमार ? तेरे भाग्य अच्छे ही थे जो दुःख से छूट गया। कुमार ने कहा यह सब तुम्हारी 'ही कृपा का फल है। तुम्हारे ही प्रत्युपकार से मेरी जान बची है तथा तुम्हें धन्य हो कि जिन्हों ने मेरी जान बचाई। तुम पति P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 26 ) पत्नी दोनों ही साधु हो! तुमने प्रत्युपकार कर के पृथ्वी को अलंकत कर दिया है। मालो ने उत्तर दिया--कुमार ? यह * सब तेरे ही पुण्य का फल है। ऐसी बातें करते 2 उन्हों ने उस रात्री को व्यतीत कर दिया। प्रातः काल ही कुमार रूपसेन ने मालिन से कहा-वहिन ? श्राज तू पुष्प लेकर कुमारी के पास शीघ्र जा और कुमारी के हर्षशोक की परीक्षा कर / यदि वह मेरे विरह में लवलीन हो तब तूने मेरे जीवित रहने की बात से उसे हर्षित कर कहना कि श्राज सन्ध्या को कुमार रूपसन तेरे महल में अवश्य थावेगा। यदि इस तरह कहने पर भी उसका शोक दूर न हो तरे पूरा श्रश्वासन देना। यदि उसने कोई शोकावस्था प्रकट न को तो आज से पीछे मैं कभी उसके घर नहीं आऊंगा। - कुमार के कहने से मालिन फूल लेकर सुरन्त हो कुमारी कनकवती के महल में गई। कुमारी ने मालिन को देख कर दीर्घनिःश्वास लिया और बोली, "यह हार अब मेरे श्रृंगार के योग्य नहीं रहा। क्यों कि. जिसके लिये मैं सब श्रृंगार किया करती थी, वह ही नहीं रहा। आज मैं अत्यन्त दुखी हूँ ! अपना दुःख किस के मागे प्रकट करूं। केवल तेरा ही सहारा जान तेरे बाग निवेदन करती हूँ। बता अव मैं इस समय किस को शरण लं / बस श्राज से मैं इस संसार में जीवित न रहँगी और रहना भी किसके लिये है ? कुमारी कनकवती के विलाप को सुन कर मालिन बोली: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 28 ) वह मर गया है परन्तु उसका दगड हमारे घर में विद्यमान है, श्राप उस दण्ड को लेकर वहां जायो और तीन बार उस मृतक शरीर पर दण्ड लगायो; वह कुमार अवश्य ही जीवित हो जावेगा। इस में कोई सन्देह नहीं, केवल साहस की आवश्यकता है, आप इतना प्रत्युपकार करें। माली ने इस बड़े भाषण को सुनकर उत्तर दिया, "प्रिये ! तुम सत्य कहतो हो. परन्तु वहां जाना बड़ी विपत्ति का कारण है। यदि मैं यहां जाऊं और मुझ को कोई देखले तो मुझ पर विपत्ति अवश्य ही टूट पड़े। पति का टका सा जवाब सुन कर मालिन स्वयं वहां गई। उसने वहां जाकर देखा कि रूपसेन के गले में फांसी पड़ी है तथा कुमार रूपलेन बुलाने पर भी नहीं बोलता / मालिन ने तुरन्त ही मृतक शरीर पर तीन वार दण्ड लगाया। दगड का लगना था कि कुमार तत्क्षण "जय जिनेन्द्रदेव" कह कर उठ खड़ा हुया, और कहने लगा कि आज तो बहुत निन्द्रा आई। मालिन ने कुमार को सव वात कह सुनाई। कुमार ने भी स्मरणकर मालिन के गुणों का गान किया। यह वोला-“वदिन ? मैं तेरा यह उपकार कभी न भूलंगा, तूने आज मुझे जीवन दान दिया है"। मालिन कुमार को लेकर अपने घर चली गई। .. माली ने जीवित कुमार को देखकर अत्यन्त हर्ष प्रकट किया। कुमार से कहने लगा। “कुमार ? तेरे भाग्य अच्छे * ही थे जो दुःख से छूट गया। कुमार ने कहा यह सव तुम्हारी ही कृपा का फल है। तुम्हारे ही प्रत्युपकार से मेरी जान बची है तथा तुम्हें धन्य हो कि जिन्हों ने मेरी जान बचाई / तुम पति P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________ पत्नी दोनों हो साधु हो! तुमने प्रत्युपकार कर के पृथ्वी को अलंकन कर दिया है। मालो ने उत्तर दिया--फुमार ? यह * सब तेरे ही पुण्य का फल है। ऐसी बातें करते 2 उन्हों ने उस रात्री को व्यतीत कर दिया। .. प्रातः काल ही कुमार रूपसेन ने मालिन से कहा-यहिन ? . श्राज तू पुष्प लेकर कुमारी के पास शीघ्र जा और कुमारी के हर्षशोक की परीक्षा कर। यदि वह मेरे विरह में लवलीन हो तब तूने मेरे जीवित रहने की वात से उसे हर्षित कर कहना कि श्राज सन्ध्या को कुमार रूपसन तेरे महल में अवश्य श्रावेगा। यदि इस तरह कहने पर भी उसका शोक दूर न हो तो पूरा श्रश्वासन देना। यदि उलने कोई शोकावस्था प्रकट न को तो श्राज सं पीछे मैं कभी उसके घर नहीं जाऊंगा। - कुमार के कहने से मालिन फूल लेकर तुरन्त हो कुमारी कनकवती के महल में गई। कुमारी ने मालिन को देख कर दीर्घनिःश्वास लिया और बोली, “यह हार श्रव मेरे श्रृंगार के योग्य नहीं रहा। कमो कि जिसके लिये मैं सब श्रंगार किया करती थी, वह ही नहीं रहा। आज मैं अत्यन्त दुखी हूँ ! अपना दुःख किस मागे प्रकट करू। केवल तेरा ही सहारा जान तेरे आगे निवेदन करती हूँ। बता अब मैं इस समय किस को शरण ल / बस श्राज से मैं इस संसार में जीवित न रहँगी और रहना भी किसके लिये है ? कुमारी कनकवती के विलाप को सुन कर मालिन बोली: P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________ / 30 ) हे सखी ? यदि तू मेरा कहा माने तो मैं तुझ से एक बात कहती हूं। तू मरती क्यों है ? श्रादमी जीवित रह कर अनेक मङ्गलों को देखता है"। परन्तु कुमारी का निश्चय देख कर वह फिर वोजी-"तरा पतिजीवित है इस लिये कुमारी? तू शोक को त्याग दे"। मालिन की इस बात से कुमारी हर्षित हो कहने लगी-'हे सखो ! मेरा पति यदि जीवित है तो मैं ईश्वर से यह वरदान मांगती हूं कि संसार में कोई न मरे / मालिन ने शपथ पूर्वक कहा कि यदि श्राज रात को कुमार तेरे पास न आया तो तू मृत्युका श्राराधन कर सकती है। मालिन कुमारी को हार देकर अपने घर आई और उसने कुमार से वहां को सव बात कह सुनाई। कुमार के हर्ष का पारावार न रहा उसने उस दिन को एक वर्ष ख्याल करके व्यतीत किया तथा रात्री होते ही कुमार कुमारी के महल में पहुंच गया। . . . जिस तरह मेघों को देख कर मयूरी हर्षित होती है। उसी तरह आज कन करतो कुमारी-कुमार रूपसेन को अपने सन्मुख पोकर हर्षित हुई। "हमें इस समय यहां न रहना चाहिये" ऐसे कह कर कुमार रूपसेन कुमारी को साथ लेकर तथा मालिन के घर से अपनी वस्तुएं ले, मालिन को बिना कहे हो कनकपुर से रवाना हुआ, तथा पाका-प्रयोग से उसी बट वृक्ष पर विश्राम करने के लिये ठहरा। कुमारी तो सो गई परन्तु कुमार जागता रहा / . .. . . . . / PP.AC.Gunratnasurf M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 31 ) . . जिस समय कुमार और कुमारी कनकवती. उस वृक्ष की एक शाखा पर विश्राम कर रहे थे. उसी समय वहां एक योगी और एक योगिनी विश्राम करने आये। विश्राम लेने को दोनों ही एक शाखा पर चढ़ गये। थोड़ी देर के बाद वह योगी अत्यन्त-वेग से रोने लगा। योगिनी के रोकने पर भी वह न रुका और बोला, प्रिये? जिस कारण से मैं रोता हूँ वह तू सुन / : हम चार योगियों ने इस वृक्ष पर रहकर चार सौ वर्षों में . एक देवता को प्रसन्न करके गुथली पादुके दण्ड और पात्र-यह , चार वस्तुएं प्राप्त की थीं। पक दम यहां एक धूर्त आया और चारों वस्तुएं हम से ठग कर चल दिया। वे वस्तुएं मेरे स्सरण आगई थीं जिस से मैं रोने लगा / प्रिये ! मैं तुझे भी बोधित करता हूँ कि संसार में कभी किसी का विश्वास नहीं करना / 'मेरा सर्वस्व. नष्ट हो गया बस मैं इसी लिये रोता हूँ। योगिनी ने योगी को तसल्ली दी और कहा:- . ___ "भवितव्यं भवत्येव कर्मणा मीहशी गतिः विपत्तौ किं विषादेन सम्पत्ती हर्षेण किम्" अर्थात्-संसार में जो होना होता है वह हो कर ही रहता है। इस लिये विपत्ति में रोने से और सम्पत्ति में हंसने से कुछ नहीं होता क्यों कि यह कर्मो की ही गति है / ___"उन वस्तुओं से किसी न किसी का तो उपकार होता P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 32 ) ही होगा, तुम इस विषय में कोई चिन्ता न करो," ऐसा कह कर योगिनी ने पुनः योगी से पूछा-खामिन् ! जब श्राप यहां चार सौ वर्ष तक रहे तो क्या आपने यहां से कोई श्राश्चर्य जनक जड़ी बूटी नहीं प्राप्त की। योगी मे "हां" कहते हुए यों कहा इस देश में ऐसा वृक्ष है जिस की जड़ मनुष्य को सुंघाने से मनुष्य कपि (बन्दर) बन जाता है। तथा दूसरी एक ऐसी जड़ी है। जिसे सूंघने से वन्दर भी मनुष्य हो जाता है। __ इसके बाद उसी समय योगी और योगिनी दोनों प्रकार की जड़ियों को उखाड़ कर वहां से चल दिये। __जानते हुए कुमार ने योगी की सब बातें सुनी और वह जड़ी भी देखी। विस्मित कुमार ने भी वे दोनों जड़िये ग्रहण करलीं। कनकवती के. जागने पर कुमार सो गया। तब कुमारी कनकवती कुमार को पोटलो खोल कर देखने लगो। पोटला में पात्र गुथली श्रादि के सिवाये और कुछ नहीं था। इन वस्तुओं को देख कर कुमारी के भाव बदल गये। जिस कुमार को वह अपना प्राण वलभ कहा करती थी उसे ही आज धूर्त जोनने लगी, और बोली-इस ने योगियों का भेस बनाकर व्यर्थ ही मुझे धोखा दिया। वास्तव यह कोई धूर्त योगी है। इसने अपनी चतुराई से मुझे जाल में फंला रक्खा है। कर्मों की विचित्रगति है जो मेरा इस धूर्त योगी से सम्बन्ध हुआ। कुमारी इस तरह विलाप करने और कहने लगी--हे दैवी ! तूने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 33 ) अवटित बड़ दिया जो मेरा इस नोच के साथ सम्बन्ध कर दिया। इस लिये यही अच्छा हो जो मैं फिर अपने घर को वापिस चलो जाऊं। कुमारी यह विचार कर कुमार रूपसेन की कथा श्रादि चारों वस्तुओं को उठा, पादुका प्रयोग से शीघ्रही अपने घर श्राकर अपने कमरे में सो रही। किसी ने भी उसे आते जाते नहीं देखा ! ___ हत भाग्या कुमारी कनकवती चिन्ता मणि रत्न को छोड़ तथा दृढ़ प्रेम को न जान, मूर्खता में फंस कर कुमार का साथ छोड़ चली गई। - उधर कुमार रूपसेन नींद से जागा। उसने कई बार कुमारी को प्रिये ! प्रिये ! कह कर सम्बोधित किया परन्तु वहां से कुछ उत्तर नहीं मिला। अन्धकार के कारण कुमार ने सोचा कि सोती होगी इस लिये कोई उत्तर नहीं मिला। पुनः वह कनकवती को जगाने का प्रयत्न करने लगा। परन्तु यह उपाय भी निष्फल हुवा / जब कुमार ने इधर उधर देखा तो न वहां कुमारी को विद्यमान पाया और नाही अपनी चारों वस्तुओं को। ___ कुमार विस्मित हो विचारने लगा-"निद्रा ही अनथों की जड़ .. है, निद्रा से ही प्रमाद होता है। श्रेय को निद्रा नष्ट करती है तथा निद्रा ही संसार को बढ़ाती है"। रूपसेन ने कुमारी को वारवार खोज की परन्तु कहीं भी कोई पता न चला। नितान्त उसके मन में यह विश्वास हो P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________ . . ( 34 ) गया कि कुमारी अपने माता पिता के कोप के कारण अपने घर लौट गई है। किन्तु उसने मेरी बारी वस्तुएं क्यों उठाई ? उनक न होने से तो मुझे दुःख ही होगा। मैं कुछ और सोचता था परन्तु वह कुछ और ही कर गई। __ थोड़ी देर के बाद कुमार ने सोचा कि वह भी मुझे मालिन की तरह धूर्त जान छोड़ भागी है। कुमार ने बहुत पश्चात्ताप किया और कहा-मैंने व्यर्थ हो उसको अपना भेद दिया और उसका विश्वास करके अपनी चारों वस्तुएं उसे दिखाई पो कि स्त्रियों का कभी विश्वास न करना चाहिये / नितान्त कुमार वहां से दोनों जड़िये लेकर तक्षा स्वयं एक जड़ी संघ बन्दर बनकर कुछ दिनों के बाद कामयुर के निकटवर्ती उसी बाग में आकर ठहरा। थोड़ी देर के बाद उसने दूसरी जड़ी संघी और आदमी बन चम्पा के वृक्ष के नीचे सो गया।' नित्य की तरह मालिन अाज भी पुष्प लेने वाटिका में पाई / चम्पा के वृक्ष के नीचे सोये हुए कुमार को देख कर हपित हो बोली "भ्रात ! तू इतने दिन से कहां था, अथवा किली लोभ के वश या किसी को मिलने गया था"। कुमार निद्रा से जागा और उसने अपना सब वृत्तान्त उसे कह सुनाया। मालिन ने विस्मित हो कुमार से पूछा, कि मैं नित्य ही फूल लेकर कुमारी के पास जाती हूँ, वह कहीं नहीं गई। कुमार ने उत्तर में कहा, यह सव वृतान्त उसी रात्री का है-जब मैं तुम्हारे घर सोने नहीं आया था। मैं तो जङ्गल में सो गया था, परन्तु वह भाग आई। उसने मेरा सर्वस्व हर लिया तथर P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________ विश्वास सात किया है। "अब मैं उसे विश्वास बात का पता देना चाहता हूँ' : मालिन बोली-''अबला या क्रोध करना ठीक नहीं, चोटी पर हमला क्या' ? कुमार ने एक बार फिर कुमारी से मिलने की इच्छा प्रकट की। मालिन ने कुमार रूपसन को बहुतंग समझाया परन्तु उसने एक न मानी / मालिन ने फिर कहा. “कुमार ! पहिले ता तू पादुका प्रयाग सं जासकता था अब तो वहां सात सौ मनुष्यों का पहिरा है। तो कैसे वहां तक जाना होगा ? कुमार ने उत्तर दिया" भगिनी ! मेरे पास एकयुक्ति और है जो तू मेरा कहा करे तो में तेरे आगे प्रकट कर / उस भेद को किसी के आगे प्रकट न करना, क्योंकि स्त्रियों के हृदय गम्भीर नहीं होते। इसी कारण से मैं तुझे बार बार कहता हूं। इस पर मालिन ने कहा-"भाई ! सब स्त्रिये एक सी नहीं होती। इस लिये संकोच को त्याग कर पृर्णतया कह डाल / में हर तरह तरी मदद करने को प्रस्तुत है।" ____ कुमार को मालिन पर पूरा भरोसा होगया। कहने लगा कि मैं वन्दर बन जाता हूँ। तू मुझे लेकर कुमारी कनकवती के पास जा। संभव है वह मुझे अपनी क्रीड़ा के निमिन अपने पास रखले / परन्तु तू मुझे एक दम हो ना दंदना। इस तरह करने से वह तुझे अधिक धन देगी और मेरा भी कार्य सिद्धि हो जावेगी। ____ मालिन ने कुमार रूपसेन की बात को मान लिया। कुमार भी उसो क्षण बन्दर बन गया, मलिन उसे लेकर अपने घर गई और उसे अच्छे वस्त्राभूषण पहिना कर कुमारी के पास लेगई। .. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________ / 36 ). .. कुमारी ने इस बन्दर को देखते ही कहा-'मालिन ? यह बन्दर नो न मुझे दे दे। मैं इसस बेला कर गी"। मालिन ने देने से बहुत इनकार किया परन्तु उसने एक न मानो। कुमारी ने मानिन को एक दिनार और एक रेशमी साड़ी दे कर हर बन्दर ले लिया। मालिन भी बन्दर को छोड़ खुशी 2 अपने घर चली ग्राई / कुमारी रात भर उस बन्दर से खेलती रहो और रात्रि को भी उसे अपने साथ ही कमरे में ले गई। कुमार रूपो बन्दर ने भी अच्छा अवसर जान तुरन्त ही अरना मनुष्य रूप धारण किया / कुमारी ने जब कुमार रूपसेन को अपने सामने खड़ा देखा तो उस को बहुत आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगी-"क्या में स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ ? जक कुमारी को विश्वास होगया तो कुमारी लजा से शिर नीत्रा कर तुरन्त ही कुमार के पांचों पर गिर पड़ी, और कातर स्वर. में कहने लगी, "स्वामिन् ! श्राप मेरे अपराधों को क्षमा करो। मुझ में वड़ो भूल हुई। जो मैं पाप को जङ्गल में छोड़कर चली आई। फिर कभी ऐसी भूल न करंगी / प्राणनाथ ! मुझ किकरी को अवश्य ही एक वार तमा करें। कुमारी के कहने सुनने का कुमार के दिल पर कोई असर न हुअा। वह कनकवती से बोला-बहुत कहने सुनने से क्या होता है। वनावटी स्नेह से कमो सङ्कल्प सिद्धि नहीं होती। सच्चा प्रेम बहुत दुर्लभ है। कुमारी रूपसन के चरणों को पकड़ कर फिर बोलीनाथ ! आप जैसे सत्पुरुष अपराधियों पर भी कोध नहीं किया करते। मैंने अवश्य ही अपराध किया है, हे स्वामिन ! P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________ मैं आपके चरणों में पड़ कर बार बार क्षमा मांगती हूं, श्राप मेरे अपराध को क्षमा करें। कुमार बोला-"यह सव भवितव्यता है इस में तेरा क्या दोष है”। यदि तू मेरो आज्ञा मानती है तो यह औषधि अपने हाथ में लेकर इसे संघ-इस के सूंघने से हमारा प्रेम बरावर बना रहेगा। कुमारी कनकवती ने ज्यों हो जड़ी को संघा त्यों ही वह वानरी दीख पड़ने लगी। . रूपसेन ने तुरन्त ही वन्दरी को एक स्तम्भ से बांध दिया।' घर में से अपनी चारों वस्तुएं लेकर पादुका प्रयोग से मालिन के घर यागया और प्रातः काल ही अपनी सव वस्तुएं लेकर उनको चलदिया। कुमार ने वन में जाकर कुछ सोचा विचारा और गुदड़ी आदि बस्तुओं को सम्भाल कर रक्खा। अपना वेष योगियों का स्नाया और अवधूतरूप से विचरने लगा। उधर प्रातः काल ही दासिये नित्य की तरह आज भी कुमारी के महल में गई। वहां कुमारी के स्थान पर वानरी को देख कर श्राश्चर्य करने लगी। दुःखित दासियों ने तुरन्त ही राजा के सम्मुख पाकर कहा, महाराज ! आज कुमारी कनकवती अपने आवास में नहीं है। उसके स्थान पर एक वन्दरिया बन्ध रही है। राजा तुरन्त ही कुमारी के महल में गया और बन्दरी को देखकर सोचने लगा-"क्या यह दृष्टि दोष हुआ है, अथवा किसी ने छल से ऐसा किया है, या किसी ने शाप दे दिया है। क्या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________ किसी ने मन्त्र द्वारा इसे छल से वानरी बना दिया या किसी देवता ने वैर से ऐसा किया है। राजा ने सब दासियों को बुला कर पूछा-क्या कल कोई कुमारी के पास आया था। ___ सब दासियों ने तुरन्त ही उत्तर दिया, अन्नदाता ? भागे यहां मालिन नित्य ही अकेली पाती थी, परन्तु जब वह कल आई थी तो उस के साथ एक वन्दर का वच्चा था और नाही उसके अतिरिक्त यहां कोई पाता जाता था। ___ राजा तुरन्त ही सभा में पाया और अपने मन्त्री बुद्धि सागर से सब कथा कह सुनाई और बोला-कहीं मालिन की कुछ शरारत न हो। मालिन को इसी समय सभा में उपस्थित करो। श्राज्ञा की देर थी मालिन तुरन्त ही सभा में कांपती हुई पहुंची "राजा मेरा क्या करेगा में किस लिये बुलाई गई हूँ" मालिन वहां बैंठी यही सोचती रही। . राजा ने क्रोधित हो मालिन से पूछा-अरी दुष्टे ? सत्य बत्तो यह इस तरह के छल कहां से सीखे हैं। और भी तो सारा नगर था, मेरे घर में ही तूने ऐसा क्यों किया। डर से कांपती हुई मालिन ने उत्तर दिया। हे राजेन्द्र ! मैं इस विषय में कुछ नहीं जानती। राजा ने पूछा "क्या कल तूने कुमारी को कोई बन्दर दिया था" ? मालिन बोली अहाराज जब मैं कल अपनी बाटिका में पुष्प लेने गई थी तो मुझे वहां से एक बन्दर मिला था, वह मुझ से कुमारी ने खेलने के लिये लेलिया था इससे अधिक मैं कुछ नहीं जानती। - 'मेरी पुत्री को वानर मंगाने की, क्या आवश्यकता थी, इस में सब तेरा ही दोष है। तूही दुष्ट पापिनी है। जो दण्ड : P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 36 ) चोर को दिया जाता है वही तेरे लिये युक्त है। __ राजा के कठोर बचनों से मालिन का हृदय कांप उठा। वह सोचने लगी, कि मुझ पर श्राज भाग्य की करता है, जिस से मुझे यह दोष लग रहा है / ___राजा के क्रोध को बढ़ता देख मन्त्री बोला-महाराज ! श्राप क्यों पाप करते हो पहिले भी आपने एक परोपकारी विदेशी कुमार को मार दिया है। अब यह दूसरा स्त्री हत्या को पाप आप क्यों अपने ऊपर लेते हैं। ___ राजा ने चिन्ता प्रकट करते हुए कहा हे सचिव ! श्राप हो जाये तो चित में शान्ति हो। इस लिये जिस दुष्ट ने यह पातक किया है उसे श्राप दण्ड निकालिये। मन्त्री ने कहा राजेन्द्र ! मालिन कहती है कि वह बन्दर किसी योगी का छोड़ा हुआ था। इससे प्रतीत होता है कि ऐसे कुकर्म करने वाले योगी ही हैं। वे धूर्त ही देश विदेश में फिरते हैं। तथा मन्त्र, तन्त्र, से लोगों को कष्ट देते और छलते है। इन धूर्त योगियों का कभी विश्वास न करना चाहिये। राजा ने अपने सेवकों को बुलाकर आज्ञा दी; "जाओ देश विदेश में जहां भी कोई योगी मिले उसे पकड़ कर लाओ" ' हज़ारों योगी बन्दी गृह में पड़े हा हा कार और परस्पर मन्त्रणा करने लगे, कि राजा ने हमें व्यर्थ पकड़ा है, न जाने यह हमारा क्या करेगा। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________ (40 ) एक दिन राजा स्वयं वहां गया और योगियों से पूछने लगा, “योगियो ! तुम सदा देश विदेश फिरते हो। किसी योगो ने मेरी पुत्रो को वानरी बना दिया है। क्या तुम उसे पुन: वानरो से कन्या बना सकते हो"। वे बोले महाराज ! हम तो नित्य ही भिक्षा माङ्ग कर खाते हैं, हमें तो विच्छू काटे तक का उपाय नहीं पाता, यह महान् कार्य तो हम से क्यों कर हो सकता है। राजा ने अपने सेवकों को बुलाया और पूछा क्या तुम सब योगियों को पकड़ लाये हो। उत्तर मिला-"महाराज एक यागो के सिवाये सब योगी आगये हैं' बह ऐसा घमण्डी योगो कहां है जो मेरे बुलाने पर भी नहीं आता। सेवकों ने कहा राजन् ! यह चौराहे पर ध्यान लगाये बैठा है। वह निर्धनों को स्वर्ण मुद्रा वांट रहा है। बहुत से अादमी उसके पास वैठे हैं। तथा यह योगी लोगों को (परोपकार करो) यह उपदश दे रहा है। ... .. . राजा कुपित हो वोला, जो मेरी अाज्ञा को नहीं मानता वह अवश्य ही मारने योग्य है। मन्त्री भी पास हो खड़ा था। वोला, महाराज! योगियों पर क्रोध करना उचित नहीं / श्राप राजा हो वह योगी है। यदि आज्ञा हो तो मैं उसे यहां लाने का प्रयत्न करू / राजा की आज्ञा से मन्त्री अपना थोड़ा सा परिवार लेकर योगी की सेवा में गया। योगी ने भी मन्त्री का यथोचित सम्मान किया। और बैठने को स्थान दिया। . मन्त्री ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, महाराज ! श्राप P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________ सब के पूज्य हो इस लिये श्राप मुझ गरीब के घर की शोभा बढ़ावें। तथा अपने चरणों से उसे पवित्र करें। राजो ने भी श्राप को स्मरण किया है अतः श्राप सभा में चलकर भी अवश्य अपना कला कौशल दिखावें। योगी ने मन्त्री को उत्तर दिया--हम योगियों का राजा से क्या प्रयोजन है। दूसरे वह राजा कहलाने के योग्य नहीं। राजा वही कहला सकता है, जो कि न्याय तथा अन्याय को जानता हो। उसही के दर्शन करने योग्य हैं। सचिव! यदि अन्याय करते हुए राजा को मन्त्री नहीं रोकता-तो उस मन्त्री को भी बहुत पाप लगता है। मन्त्री ने योगी की बात सुनकर पूछा, महाराज ! हमारे . राजा ने कौनसा पाप किया है। योगी ने उत्तर दिया-मंत्रीवर्या ! जो योगीजन देश विदेश फिरते हैं, भिक्षा मांग कर निर्वाह करते हैं। राजा ने उनको किस लिये चोरों की तरह बन्दी गृह में डाल रक्खा है। रोजा का इस प्रकार का अन्याय कैसे सहन हो सकता है ? मन्त्री जी तुम अभी राजा के पास जाओ। योगी (कुमार) की बात सुनकर मन्त्री तुरन्त ही राजा के पास जाकर बोला-राजेन्द्र ! वह योगी बहुत दयावान्, विद्वान तथ दानी है। इस लिये उसका तो मान करना ही उचित है तथा इन योगियों को छोड़ देना ही बेहतर है। अतः इन को जल्दी छोड़ दें। योगी की आज्ञा पाते ही राजा ने सब योगियों को छोड़ दिया। छूटे हुए सब योगी राजा को आशीर्वाद देकर बन में चलेगये। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________ / 42. ) राज ने योगी की सेवा में अपने अङ्गरक्षक भेजे, योगी ने दूर से ही नौकर को देखकर कहा, "अागे मत प्रायो, वहीं खड़े रहो ! यदि मेरी ओर बढ़ोगे तो सब को भस्म करदूंगा"। विचारे अङ्ग रक्षक दूर ही से योगी को बुलाने लगे। क्रोधित हो योगी ने उत्तर दिया, जाश्रो राजा से कह दो-"कि यदि तुम्हें योगी से कुछ कार्य है, तो आप ही सवारी लेकर हमारी संवा में आये। नौकरों ने वेसं ही राजा के आगे निवेदन कर दिया। ___ नौकरों की बात सुनकर राजा तुरन्त ही परिवार सहित योगी की सेवा में गया। नमस्कार करक उसकी स्तुति की और योगी के प्रति बोला-महाराज ! आप सब के पूज्य हो इस लिये मुझ गरीव के घर की अवश्य शोभा बढ़ावें। योगीने राजा को उचित उत्तर दिया। और राजा को प्रार्थना स्वीकार कर उसके साथ चलने को तैयार हुया"। / राजा ने योगी को सजे हुए हाथी पर सवार किया और अपने घर ले पाया और पूछने लगा-स्वामिन् क्या आपके पास कोई ऐसी जड़ी बूटी या कौतुक कारिणी विद्या है। जिसके कारण मेरी पुत्री अच्छी हो जावे। क्यों कि मेरी पुत्री को किसी ने वानरी बना दिया है। ..... ____ योगी ने राजा से प्रश्न किया- यदि वह अच्छी हो जावे तो आप मुझे क्या देगे। राजा ने कहा-पांच सौ दीनार तथा एक ग्राम से आपकी पूजा करूंगा। योगी ने कहा यदि तुम अपनी कन्या का विवाह हमारे साथ करदो तो हम उसे अच्छा कर सकते हैं / P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________ __राजा विवाह का नाम सुनते ही चिन्ता के सागर में डूब गया और कहने लगा कि इस तरफ खाई है तो उस तरफ शेर है। क्या करू, यदि हां करता हूँ तो योगी के साथ पुत्री का पाणिग्रहण होता है। संसार हास्य करेगा, जवाब देता हूँ तो पुत्री जैसी को तैसी रहती है। , राजा खिन्न चित्त होकर मन्त्री से पूछने लगा। मन्त्री ने उत्तर दिया--महागज! आप विवाह करने से इनकार न करो, जव कनकवती तथावत् हो जावेगी, तो देखा जावेगा। मन्त्री के समझाने से राजा ने योगी की बात को स्वीकार कर लिया। .. .. . .. . - राजा, मन्त्री, योगी, तोनों ही कुमारी कनकवती के महल की ओर चल दिये। मार्ग में योगी ने राजा और मन्त्री से फिर पूछा-देखो! यदि तुम्हारी इच्छा मेरा पाणिग्रहण कुमारी से करने की हो तो हम उसे वानरो को कुमारी बनावे, अन्यथा नहीं। . राजा और मन्त्री योगी के पीछे 'हां महाराज' 'हां महाराज' कहते जाते थे। एक जगह योगी ने रुक कर राजा और मन्त्री से कहा-“यदि कोई मेरे पढ़े मन्त्र को सुनेगा, वह तुरन्त ही पाषाण-शिला हो जावेगा। यह सुनते ही राजा तो तुरन्त अपनी सभा में लौट आया। परन्तु मन्त्री योगी के पीछे 2 ही चलता रहा। जब महल के द्वार पर ही जा पहुंचे तो योगी ने मन्त्री से फिर कहा-मन्त्रि ! तू मूर्ख प्रतीत होता है। यदि तू मेरे पठित मन्त्र को सुनेगा तो तुरन्त ही शिला रूप हो जावेगा। बता! फिर तू क्या करेगा ?" मन्त्री ने हठ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 44 ) पूर्वक कहा मेरा शरीर वज्र का है इस का क्या बिगड़ सकता है। योगी ने कहा-अरे मूढ़ ! क्यों मरने से नहीं डरता? मन्त्रों में अपूर्व शक्ति होती है। + + + . + योगी के कहने से मन्त्री को ज्ञान हुया तथा वह तुरन्त ही लौट आया। योगी (कुमार रूपसेन) अकेला ही कुमारी कनकवती के भवन में गया, वहां बैठी हुई सब दासियों को बाहिर निकाल दिया। जब कुमार ने देखा कि अब यहां तीसरा कोई नहीं तो उसने बानरी के आगे दूसरी जड़ा रखदी। वह तुरन्त ही कुमारी कनकवती बन गई। कुमारी ने तुरन्त ही अपनी सखियों को अपने निकट बुना लिया। सब दासिये कुमारी को जैसो की तैसी देख कर बहुत प्रसन्न हुई और कहने लगीं-हे सखि ! तू तो मर्कटो होगई थी, इस योगी ने .. तेरी जान बचाई है। दासिये तुरन्त ही राजा के पास हष संवाद सुनाने भागीं। इधर कुमारी हाथ जोड़ कर कुमार रूपसेन (योगी) के पाओं पड़ कर कहने लगी, खामिन् ! आज से पीछे मुझ दासी पर सदा ही कृपा दृष्टि रखना। कुमारी ने बहुत प्रार्थना की, परन्तु कुमार ने कुमारी की ओर एक बार भी न देखा। . . ---- इधर राजा दासियों की बात को सुन. दु:ख सुख दोनों के जाल में फंसा हुआ कुमारी के महल में आया। राजा को देखते ही योगी ने कहा-राजेन्द्र ! मैंने तेरी पुत्री को सजग P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________ 8. 45..): कर दिया है। . बतायो अब तुम्हारी क्या सलाह है! राजा उसी क्षण चिन्ता सागर में गोते खाता हुआ सोचने लगा-यह. योगी अज्ञात कुल है, हम इसका घर दर कुछ नहीं जानते फिर इसे क्यों कर अपनी लड़की दें? . . . ... राजा ने तुरन्त ही मन्त्री को बुला कर सम्मति ली / मन्त्री ने योगी से पूछा, हे योगि राज ! श्राप का स्थान कहां है तथा क्या जाति, ; क्या कुल, क्या धर्म और इस छोटी अवस्था में योग लेने का क्या कारण है ? : ... मन्त्री की बात सुन कर योगी ने कहा-आप का जाति धर्म पूछने से क्या प्रयोजन है। राजा ने पहिले कन्या दान की प्रतिज्ञा की है। मैं भी सिवाये उसके कुछ नहीं मांगता / : 4 - सच्चे आदमियों का बचन अन्यथा नहीं हुआ. करतो। मन्त्री ने फिर कहा, योगिराज ! आप तो सर्वोत्तम तथा परोपकारी हो। गुणों के जानने वाले गुणों की खान हो। हम आपके लक्षणों से हो आपके धर्म कुल जाति का अनुमान कर सकते हैं / यद्यपि हम आपके गुणों को अच्छी तरह जानते हैं। तो भी आप राजा के संशय को दूर करने के लिये अपना स्थान तथा कुल वताही द।........ योगियों का पहिनावा पहिने हुए कुमार रूप्रसेन ने मन्त्री की वातो से प्रसन्न होकर अपनी आद्योपांत कथा कह सुनाई और कहा कि मैं राजा मन्मथ का बड़ा पुत्र कुमार रूपसेन हूँ। .. कुमार के वृत्तान्त से सब ही बहुत प्रसन्न हुए। राजा ने P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________ / 46 ) उसी समय ज्योतिषियों को बुला कर शुभ लग्न निकलवाया, और अपनी पुत्री कनकवती का रूपसेन से विवाह कर दिया। कुमार रूपसेन वहां थोड़े दिन रहा, फिर वह अपने मगर के प्रति चल दिया। कुछ दिनों चलने के बाद कुमार रूपसेन स्त्री सहित अपने नगर में पहुंचा। घर में जाकर कुमार रूपसेन ने अपने माता पिता के चरणों में नमस्कार किया। माता पिता ने उसे गले से लगा लिया // नगर भर में रूपसेन के आने की खबर हो गई। लोग राजा मन्मथ को वधाई देने के लिये श्राने लगे। राजा ने बड़ा उत्सव मनाया याचकों को बहुत धन दिया। कुमार रूपसेन पद्मावती देवी की सहायता से तथा जैनाचायों के कथनानुसार अपनी पत्नी सहित बारह वर्ष के बाद अपने नगर में आया था। . राजा जैनाचार्यों के दर्शन करने के लिये परिवार सहित बन में गये। गुरुओं ने राजा मम्मथ को यथोचित उपदेश देते हुये कहा, राजन् ! सुन: "दुलमं मानुष जन्म-दुलमं श्रावकं कुलम्....... 'दुलमा धर्मसामग्री दुलमा धर्म वासना" / अर्थात हे राजन् ! संसार में मनुष्य जन्म होना दुर्लभ है तिस पर भी धावक कुल में पैदा होना तथा धर्म की सामग्री तथा धर्म में बुद्धि रखना तो अत्यन्त ही दुर्लभ है। . P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 47 ) संसार सागर से पार उतर ने के लिये श्री शत्रुक्षय तीर्थ यात्रा भी दुर्लभ है। यदि कोई उस यात्रा को कर पाता है तो संसार के आवागमन से कट जाता है। शास्त्र कारों का कथन है "एकैकस्मिन् पदेदत्त-शत्रुजय गिरि प्रति भव कोटि सहसाणां पातकानि प्रयान्ति हि" . अर्थात्-शत्रुजय पर्वत तीर्थ की अोर एक 2 पद रखने से कोड़ों ही भवों में किये हुये पातक दूर हो जाते हैं / श्री तीर्थ की यात्रा करने से मैल नहीं रहती / तथा तीर्थों के भ्रमण से जीव संसार में नहीं भटकता। तीयों पर खर्च करने से लक्ष्मी बढ़ती है। तीर्थों के अर्चन से किसी कर्म का बन्धन नहीं रहता। श्री जैनाचार्य ने और भी बहुत से उपदेश दिये। राजा मन्मथ ने भी दत्त चित्त होकर उपदेश सुने और उसी क्षण प्रतिज्ञा की, कि महाराज ! मैं अवश्य ही तीर्थ यात्रा करूंगा। राजा वहां से लौटकर अपने घर पाया, तथा दूसरे दिन ही परिवार सहित तीर्थ यात्रा को चला गया। राजा मन्मथ रास्ते में अनेक स्थानों में जिन पूजा श्रादि महोत्सवों को करता हुश्रा; श्री शत्रुजय पर्वत पर पहुंच गया। राजा ने परिवार सहित तीर्थ यात्रा की। श्री युगादि देव के मन्दिर में स्नानादि करके अष्टाहिक (आठ दिन) महोत्सव किया और वहां बहुत से वस्त्राभूषण दान दिये। श्री चतुर्विध संघ की भक्ति भावना से पूजा की। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________ दैवयोग से वहां राजा मन्मथ के पेट में थोड़ा सा दर्द उत्पन्न हुआ। राजा ने प्रभु श्री युगादि देवका ध्यान किया। उसके प्राण शान्त हो गये। राजा सिद्धक्षेत्र में प्राणत्यागने के कारण सौधर्म लोक को प्राप्त हुआ। कुमार रूपसेन ने अपने पिता की उत्तर क्रिया को, और फिर वह परिवार सहित अपने नगर को वापिस चला पाया। . . .. प्रधान मन्त्रियों ने अच्छे मुहूर्त में कुमार रूपसेन. का राज्याभिषेक कर दिया। अन्य राजाओं ने भी बहुत से हाथी घोड़े तथा वस्त्र भूषण उपहार में दिये। “राजा रूपसेन विर काल तक न्याय से प्रजा पालन करता रहा" : एकदा लीलावन में बहुत से जैन मुनि पधारे। राजा रूपसेन भी उनके दर्शन करने के लिये वहां गया। गुरुत्रों को नमस्कार करके धर्म देशना सुनो। फिर बोला-महाराज ! मेरी एक शंका को निवृत्त करें। वह शंका यह है। है" मैं (राजा रूपसेन) किस कर्म से बारह वर्ष वन में रहा ? तथा किस कर्म से 'मुझे चार दिव्य वस्तुएं प्राप्त हुई ? किस कर्म से मुझे परदेश में भी बहुत सा धन मिला और किस कर्म से मुझे अच्छी स्त्री प्राप्त हुई ? यह सब मुझ दास पर कृपा करके कहियेगा। / 15 मुनियों ने कहा-राजन् यदि तू अपना पूर्व वृत्तान्त सुनना चाहता है तो सुन / , वह इस तरह से है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 46 ) / रूपसेन का पूर्व वृत्तान्त / MAY लकपुर में तू 'सुन्दर' नाम वाला एक कुटम्वी था मारुता FINA तेरी पत्नी का नाम था। और तू खेती बाड़ी से अपना निर्वाह किया करता था / तुम्हारे बहुत से पुत्र पोते थे। एकदा तेरे खेत के निकट सहकार वृक्ष के नीचे कोई सिद्धजन पाकर बैठा। तूने उस सिद्धजन की एक मास तक सेवा की। इस पर सिद्धराज ने प्रसन्न होकर तुझे रूपपरिवर्तिनी विद्या दी। ___ उस विद्या के प्रभाव से तू सब कार्य करता रहा। तूने दीनो को बहुत दान दिया। इसके बाद एकदा-तेरे क्षेत्र के नज़दीक वाले वनमें बहुत से जैन मुनि आये। तू भी परिवार सहित उनके दर्शन करने गया, तथा उन मुनियों का उपदेश श्रवण करने के लिये उन के पास बैठ गया। मुनियों ने तुझे दया, दान धर्मादि का उपदेश देते हुए कहा-- "खेती करने तथा हल बाहने से बहुत पाप होते हैं" इस पर तूने कहा "गुरु महाराज ! मेरा बहुत सा परिवार है। सो में, खेतो के बिना उनका पालन पोषण कैसे करूं?" मुनियों ने कहा कि तू कोई एक नियम ग्रहण कर, जिससे तुझे धर्म का लाभ हो। इस पर तूने कहा-गुरुजी ! आज से मैं जिन मन्दिर में जिन दर्शन करके भोजन किया करंगा, तथा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________ / 50 ) यथाशक्ति सुपात्रदान किया करंगा। ज्ञात-जीव-हिंसा तथा रात्री में भोजन नहीं करूंगा"। . ___ तव गुरूओं ने तुझे व नियम दिये और कहा-इन नियमों के पालने से तुझे इस लोक और परलोक में सुख होगा। ____ तूने इन नियमों को पूर्णतया सुना और पाप से डर कर. पालन भी किया। ___इस के वाद तू एक बार कहीं जारहा था। मार्ग में तुझे एक साधु मिला। तू ने उसे गुड़ घी में पके हुए पूड़े दिये / उस दान से तुझे हर्ष प्राप्त हुआ क्यों कि वह दान सुपात्र को दिया गया था। ___ एक बार तेरा ससुर तेरी पत्नी का लियाने के लिये तेरे घर श्राया, परन्तु तूने उसे जाने की आज्ञा न दी। इस पर वह बहुत रोने चिल्लाने लगी। तूने क्रोधित हो अपने ससुर को रूप परवर्तिनी विद्या से बछड़ा बना कर कीले से बांध दिया और श्राप क्षेत्र में चला गया। बारह घण्टे के बाद जब तू अपने घर श्राया तो तेरी पत्नी ने पूछा, मेरा पिता कहां है / तूने जवाब दिया--वह अपने घर चला गया है। पिता के गमन को सुन कर तेरी स्त्री रोकर कहने लगी, मुझे मेरे पिता के पास अवश्य भेजदें, यदि न भेजोगे तो में अन्न जल न करंगी। बार बार कहने पर तूने उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। उसके पिता को वैसा ही करके उसके साथ अपनी पत्नी को रवाना कर दिया। तू ने बहुत दान तथा परोपकार किये और साधुओं की सेवा की। काल करने के बाद, तू राजा मन्मथ के यहां पुत्र हुआ P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________ 80357 और तेरी स्त्री भी वहुत पुण्य उपार्जन करके कनक पुर के राजा के गृह में कनकवती हुई। तुम्हारा परस्पर प्रेम था, इस ही कारण वह अब भी है। जैसे तू ने अपने ससुर को बारह घण्टे बांध कर रक्खा था. उसके बदले तुझे बारह वर्ष तक पितृ-वियोग हुश्रा तथा चार नियम पालन करने से तुझे कन्था आदि चार वस्तुएं मिलीं। दान करने से तुझे हाथी घोड़े अर्थ सम्पत्ति तथा सुन्दर स्त्री मिली। का काम म तले भारत साबित करना या सण राजा रूपसेन गुरु के पास से श्राद्ध (गृहस्थ) धर्म को ग्रहण कर अपने घर आया और चारों नियमों का पालन करता रहा। एकदा राजा रूपसेन को विषम ज्वार चढ़ आया। बहुत से उपाय किये गये, परन्तु सव ब्यर्थ रहे। इसी समय दूर देश से एक वैद्य (देव) अपया और बोला-महाराज ! इस ज्वार को हटाने के लिये एक बली देनी पड़ेगी। परन्तु राजा ने उसकी बात को न जानते हुये कहा "मैं अपने नियम को प्राणों के लिये भंग नहीं कर सकता। राजा रूपसेन का नियम भङ्ग न होते देख वह देव प्रकट होकर बोला-हे राजन् ! तेरे नियम पालने की प्रशंसा इन्द्रसभा में हुई थी, मैं तेरी परीक्षा करने के लिये आया था, सो तुझे नियम में गढ़ देख कर में बहुत प्रसन्न हूँ। "इस पक्ष के अन्दर त हाथी के ऊपर से गिरेगा और तेरी मृत्यु हो जावेगी। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________ ( 52 ) यह कह कर वह देवता अन्तर्धा हो गया। राजा पसेन भी कहे हुए दिन हाथी पर सवार हो कर कहीं जारहा था तो हाथी ने उसे गिरा दिया और राजा रूपसेन शुभ ध्यान पूर्वक देह त्याग कर देवता हुआ। उत्तर कथन सब मनुष्यों को रूपसेन की तरह नियम पालन करने चाहियें :अथवा"येपालयन्ति नियमान् परिपूर्णान् रूपसेन नृपतिवि ते सुख लक्ष्मी भाजः पदे पदे स्युर्जन इलाध्याः / अर्थात्-जो मनुष्य राजा रूपसेन की तरह नियमों का पालन . , करते हैं, वे सुख तथा लक्ष्मी के पात्र होकर पद पद पर प्रशंसा को प्राप्त होते हैं। ___ + इति - आ श्रीकैलारासागरसूरि ज्ञानमन्दिर श्रीमहावीर जन आराधना केन्द्र कोवा (गांधीनगर) पि. 382009 P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________ श्रीआत्मानंद जैन ट्रैक्ट सोसायटी अम्बाला शहर .. की नियमावली। WHER 1 १-इसका मेम्बर हर एक हो सकता है। २-फ़ीस मेम्बरी कम से कम 2) वार्षिक है, अधिक i देनेका हरएक को अधिकार है। फ़ीस अगाऊ लीजाती है। 1 जो महाशय एक साथ सोसायटी को 50) रुपये देंगे, वे - इसके लाइफ मेम्बर समझे जावेंगे। उनले वार्षिक बन्दा is कुछ नहीं लिया --- 3 -इर serving Jin जनवरी से प्रारंभ होता है। चाहे किसी मास में हों, परन् / से 31 दिसम्बर तक का लिया ४-जो महाशय अपने खर्च से कोई ऐक्ट छपवार कर सोसायटी द्वारा बिना मूल्य वितीर्ण कराना चाहें, उनका नाम ट्रैक्ट पर छपवाया जायगा। ५-जो ट्रैक्ट यह सोसायटी छपवाया करेगो के हर एक मेम्बर के पास बिना मूल्य भेजे जाया करेंगे। 080357 का लिय gyanmandir@kobatirth.org मन्त्री। ABE Srior perior Tree E Car diere To rias P.P.AC. Gunratnasuri- M.S. Jun Gun Aaradhak Trust