________________ वालों के कौतुक देखता जाता था। थोड़ी देर में वह हाथी एक घने जङ्गल में उतरा, और अपनी संड से राजा को नीचे उतार कर आप तुरन्त ही अद्दष्ट हो गया। विस्मित राजा वन में इधर उधर घूमने लगा। तब राजा की दृष्टि धर्माचार्य गुरुयों पर पड़ी। राजा प्रसन्न हो कर नमस्कार करने के लिये उनकी शरण में गया। गुरुओं ने भी राजा को यथोचित धर्मोपदेश दिया। . हे राजन् ! तू विषाद मत कर। धर्म की बातों में प्रमाद ___ को छोड़, क्योंकि मनुष्य देह, आर्यदेश, सव इन्द्रियों में चतुराई और अायु, यह सत्कर्मों के प्रभाव से हो मिलती हैं। यह तो पुण्य से प्राप्त हो जाय परन्तु वोधि रत्न की प्राप्ति सुदुर्लभ है। सबसे बढ़ कर जो कल्पवृत के समान धर्म की सेवा करता है वही इष्ट सुखों को प्राप्त करता है। धन सम्पत्ति जल तरंगों के समान नाशवती है। जवानी तीन चार दिन की पाहुनी है, श्रायु शरद ऋतु के मेघों की तरह चंचल है इस लिये धन को छोड़ धर्म की साधना करो। इत्यादि गुरूपदेश को सुन कर राजा को ज्ञान हुआ। राजा ने तुरन्त ही जिन धर्म की शरण ली, और गुरु से पूछने लगा “महाराज ! वह देव तथा हस्ती कौन था, जो मुझे यहां छोड़ कर चल दिया? इसी समय देव भी वहां आगया / गुरु ने कहा, यह तुम्हारा बान्धव है। यह पहिले गृहस्थ धर्म को आराधन करने से देवता होगया था। किन्तु अब तुम्हें राज्य लोलुप देखकर प्रतिबोध देने के लिये तेरे निकट पहुंचा और हस्ती रूप धर कर तुझे यहां तक लाया। .. ...... P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust