Book Title: Rupsen Charitra
Author(s): Jinsuri
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

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Page 41
________________ मैं आपके चरणों में पड़ कर बार बार क्षमा मांगती हूं, श्राप मेरे अपराध को क्षमा करें। कुमार बोला-"यह सव भवितव्यता है इस में तेरा क्या दोष है”। यदि तू मेरो आज्ञा मानती है तो यह औषधि अपने हाथ में लेकर इसे संघ-इस के सूंघने से हमारा प्रेम बरावर बना रहेगा। कुमारी कनकवती ने ज्यों हो जड़ी को संघा त्यों ही वह वानरी दीख पड़ने लगी। . रूपसेन ने तुरन्त ही वन्दरी को एक स्तम्भ से बांध दिया।' घर में से अपनी चारों वस्तुएं लेकर पादुका प्रयोग से मालिन के घर यागया और प्रातः काल ही अपनी सव वस्तुएं लेकर उनको चलदिया। कुमार ने वन में जाकर कुछ सोचा विचारा और गुदड़ी आदि बस्तुओं को सम्भाल कर रक्खा। अपना वेष योगियों का स्नाया और अवधूतरूप से विचरने लगा। उधर प्रातः काल ही दासिये नित्य की तरह आज भी कुमारी के महल में गई। वहां कुमारी के स्थान पर वानरी को देख कर श्राश्चर्य करने लगी। दुःखित दासियों ने तुरन्त ही राजा के सम्मुख पाकर कहा, महाराज ! आज कुमारी कनकवती अपने आवास में नहीं है। उसके स्थान पर एक वन्दरिया बन्ध रही है। राजा तुरन्त ही कुमारी के महल में गया और बन्दरी को देखकर सोचने लगा-"क्या यह दृष्टि दोष हुआ है, अथवा किसी ने छल से ऐसा किया है, या किसी ने शाप दे दिया है। क्या P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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