Book Title: Rupsen Charitra
Author(s): Jinsuri
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

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Page 23
________________ (. 21 ) कनकवती नित्य ही एक द्वार खोलती है और नगर की रचना देखती है। राजा की आज्ञा के विना वह कहीं बाहर नहीं जासकती। तथा मैं नित्य ही कुमारी के पास पुष्प लेकर जाती हूँ"। कुमार ने कुतुहल से पूछा, “वहिन ! यह हमारे सामने वाला द्वार किस दिन खुलेगा" / मालिन ने उत्तर दिया "यह मैं नहीं जानती"। जब कुमार और मालिन छत पर बैठे वातें कर रहे थे, उसी समय कुमार के सन्मुख वाला द्वार ही लड़की ने खोला / कुमार प्रसन्न मन उधर देखने लगा और अपने भाग्य को सराहता हुया वोला, "हे जीव ! यदि संसार में मनो वांच्छित फल पाना है तो पुण्य कर्म कर, क्यों कि पुण्य . कर्म के विना रम्य वस्तुओं के पाने का उद्योग करना व्यर्थ है"। कुमारी की दृष्ठि भी रूपसेन कुमार पर पड़ी। दोनों की / द्रष्ठि आपस में मिल गई; परस्पर स्नेह भी उत्पन्न होगया। / कनकवती ने सोचा-"पिता जी मेरे लिये सदा ही वर अन्वेषण करते रहते हैं। यदि मेरे पिता इस कुमार के साथ मेरा विवाह करदें तो कैसी अच्छी बात है"। तथा उसने उसी क्षण प्रतिज्ञा भी की, "या तो मेरा पाणि-ग्रहण कुमार से होगा नहीं तो इस जीने से मरना ही भला है"। प्राक् पुण्य के प्रभाव से कुमार रूपसेन के मन में भी वैसी ही अभिलाषा हुई। दोनों के दूर होने पर भी परस्पर स्नेह का संचार हो ही गया। तथा दोनों के मन में मिलने की इच्छा बलवती हुई। वह उस खुले द्वार में बैठी कुमार का ही आराधन करती रही। ... इधर कुमार ने भी जैसे तैसे उस दिन को व्यतीत किया P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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