Book Title: Rupsen Charitra
Author(s): Jinsuri
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

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Page 26
________________ . ( 24 ) उस नगर में वेश्याओं के सात सौ घर थे। सव वेश्याओं ने राजा की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया-“राजन् ! श्राप इन निरपराधियों को छोड़ दीजिये और यह महान् कार्य हमारे सुपुर्द करें। हम अपराधी को पकड़ कर अवश्य हो श्रापकी सेवा में उपस्थित करेंगी। यदि अन्यथा हुया तो श्राप हमें एक मास के बाद शूली पर चढ़ा सकते हैं"। राजा ने इस बात को स्वीकार कर उन सात सौ जवानों को छोड़ दिया / नगर में उनकी बहुत प्रशंसा होने लगी। / वेश्यायें उसी दिन से अपराधी को ढंडने लगीं। पर उस का कहीं पता न चला। नितान्त एक वृद्ध वेश्या ने अपनी चतुराई से कन्या के सोने वाले कमरे में सब जगह सिन्दूर डाल दिया, तथा पहिरे दारों को भी चौकन कर दिया। रूपसेन नित्य ही आता जाता था। वैसे ही आज भी रात्री में पाया / कुमारी कनक वतीने सिन्दूर तथा वेश्याओं की बात कह सुनाई। रूपसेन ने कुमारी को तसल्ली दो; पुन: मालिन के घर आकर कपड़े बदल डाले। प्रातः ही चौराहे पर धूमने लगा। इधर वेश्यांये भी लिप्त पदोंवाले मनुष्य का अन्वेषण कर रहीं थीं। रूपसेन भी कुतुहल देखने के लिये उन वेश्याओं के साथ हो लिया। वेश्याओं ने सब घर खोज' डाले परन्तु चोर का कहीं पता न लगा। निदान इसी दौड़ धूप में 26 दिन व्यतीत हो गये। वेश्याओं को अपनी जान की फिकर हुई तथा सव ही अपनी प्रतिज्ञा पर पछताने लगी और कहने लगी कि हम तो केवल अपनी कीर्ति के लिये, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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