Book Title: Rupsen Charitra
Author(s): Jinsuri
Publisher: Atmanand Jain Tract Society

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Page 25
________________ कुमारी ने खेद प्रकट करते हुए कहा "वामिन् ! श्राप के बिना मेरा निर्वाह कठिन है"। - जब कुमार ने पूरी तरह जान लिया कि इस का निश्चय लिया। तुरन्त ही चार कलश रख वेदी तैयार की तथा दीपक को साक्षो करके दोनों ने परस्सर पाणि ग्रहण कर लिया सत्पश्चात् कुमार माजिन के घर पाकर सो गया। कुमार रूपसेन नित्य ही गुप्त रीति से कनकवती के पास जाता रहा। कनकवती के महज में रहने वाली दासियों को कुमारी को पवित्रता पर संदेह हुआ। उन्हों ने रानी से और उसने राजा के आगे निवेदन कर दिया। . . . . . : . राजा ने क्रुद्ध हो तुरन्त ही सव पहरे दारों को अपने पासं पुलाया और पृथक् 2 सबको ताड़ फाड़ कर पूछना प्रारम्म किया। उन्होंने निवेदन किया कि हमने किसी को पाते. जाते नहीं देखा" * राजा ने क्रोव के श्रावेश में श्राज्ञा दी कि इन 7 सात सौ पहिरे दारों को बांध कर तब तक भोरे में डालदो जब तक यह चोर का पता न बतावें। दूतों ने भी बहुत छान बीन की परन्तु कोई पता न चला. और .नाहीं चलना था। निदान राजा ने सात सौ पहरे दारों को ही चौराहे .पर प्राण-दण्ड की आशा देदी। . . . . . . - श्राक्षा की देर थी, नगर भर में दुहाई मव गई / लोग कहने लगे कि क्या कोई नगर में ऐसा पुरुष नहीं, जो इन सात खौ निरपराधियों की जान बचा"। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust

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