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प्रतिष्ठा
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भोक्तारः कमलाचलार्थवनिताभोगस्य मत्पुन्नताः शक्तास्ते हि जिनेन्द्रविंबभवनानुष्ठापने नेतरे ॥२०॥
अर्थ-अर जे धन्य पुरुष पूर्व जन्मका प्रवाह करि उमत भया उत्साह जिनके अर पृथिवीका भूषणरूप पर पान उन्नतिता दया दम गुणका धारक अर पुण्यानुबन्धका उदय धरनेवारे अर लपीरूप चंचल वारविलासनीको भोगनेवारे पर ऊंची बुद्धिका पात्र हैं ते श्री जिनेन्द्रका विव वा मंदिरका स्थितिकरणमें समर्थ होय हैं। अन्य वराक रंक नहीं होय है ॥२०॥
युतिरयुतिरिति स्याद्विप्रकारोपदेशाद् विकलसकलधर्माध्यासतो मोक्षमार्गे।
तदिह मुनिवराणां वीतरागत्वभावस्तदितरभविकानां दत्तिरिज्या प्रधाना ॥ २१ ॥ अर्थ-श्री जिनेन्द्रदेवने मोक्षमार्ग निमित्त विकलधर्म श्रावकवर्म अह सकतवर्म मुनिधर्म इनका प्रध्यास कहिये प्राश्रयते दोय प्रकार * उपदेश हेतु युति कहिये योग अर्थात् सरागता पर अयुति कहिये अयोग अर्थात् बोतरागता असें होय है। ता कारण इहां मुनिारनके प्रोदासीन्य भाव प्रधान है, और तिनसे इतर श्रावकनके दान अरु पूजारूप धर्म प्रधान है॥२१॥
अतो महाभाग्यवतां धनसार्थक्यहेतवे । नान्योपायो गृहस्थानां चैत्यचैत्यालयाद्विना ॥ २२ ॥
इति जिनविंधप्रतिष्ठापमर्थनम् । अर्थ-या कारणनै महाभाग्यवान गृहस्थमैं धनलाभका सार्थकताहेतु चैत्य जे जिनविम्ब अरु चैत्यालयका निर्यापण विना अन्य उपाय नाहीं है ॥२२॥
पैसे जिनविवप्रतिष्ठाका समर्थन किया।
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अनंतकालप्रसरादिदानींतनावसर्पिण्यवभासमानः । श्राद्यो युगादौ पुरुरीशितायं दयानिधानो वृषमादिदेश ॥ २३ ॥
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