Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 11
________________ ARCC- N पाठ उपजाति छंदः। प्रतिष्ठा काले गृहस्था विकला गृहादिकार्येष्वनुष्ठानमुपाचरंति। अल्पावबोधद्रविणप्रभावा न धर्मकार्ये बहुधा यतंते ॥ १२ ॥ अर्थ-इस पंचमकालमें गृहस्थ हैं ते अपना गृह पुत्र कलत्र आदि कार्य विर्षे विकल हुवे संते आत्मिक कार्यका अनुष्ठान कहिये निज कृत्य18 पणाने आचरन करै हैं अर अल्पज्ञान और अल्प गव्यका प्रभाव युक्त भये इस ही हेतु धर्मसंबंधी कार्यमें बहुधा यत्न नहीं कर हैं॥१२॥ प्राप्यापि केचिद्विभवं तदीयसंरक्षणोपार्जनदत्तचित्ताः। स्वायुःसमाप्तिं किल तैलभावाभावाद्यथा दीपगणा लभते ॥ १३ ॥ || अर्थ-अर कितनेक पंचमकालका गृहस्थ धन वैभवने प्राप्त हो करि ह उसधनका संरक्षण और उपार्जनमें दिया है चित्त जिनने ऐसे हुए संते निश्चय अपनी आयुकी समाप्तिहीने जैसे दीपसमूह तेलका अभावतें प्राप्त होय है तैसें प्राप्त होय हैं ॥१३॥ ये नश्वरं वैभवमाकलय्य क्षेत्रेषु सप्तस्वतिवापयंति। तैलब्धमीशत्वफलं मनुष्यभवस्य सारं सुगृहीतुकामैः ॥ १४ ॥ अर्थ–अर जिनने इस वैभव विनाशीक जान्या ते इस वैभवकू सप्त क्षेत्रनिमें कि जिन मन्दिर, जिनविंच, जिनप्रतिपा प्रतिष्ठा, यात्रा दान, पूजा. जीर्णोद्धारमें अतिवापन करै हैं कि बोबे हैं तिनने मनुष्य भवका सार ग्रहण करि अपना ईशव फलने पायो॥१४॥ येनार्थसम्पत्तिमता जिनेन्द्रबिंब प्रतिष्ठापितमात्मकृत्यः । तेनाधिकल्पं यशसापि पुण्यप्रभूतिना व्याप्तमशेषविश्वं ॥ १५॥ अर्थ-जिस पाणी द्रव्य संपत्तिवानने आत्मकल्याणनिमित्त जिनेन्द्रको एक हु बिंव प्रतिष्ठापन किया ता प्राणीने कल्पपर्यंत यश करि पुण्य संपदाकरि समस्त जगत व्याप्त किया ॥१५॥ वदरीफलमालविंबतो हृदये पूर्वमनाप्तमाप्यते। CR5RAKHTERROCRece - CROCHAKRESCREERURALACESCENCCES Jain Educati o nal For Private & Personal use only Melibrary.org

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