Book Title: Pratishthapath Satik
Author(s): Jaysenacharya, 
Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur

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Page 14
________________ EKA प्रतिष्ठा SIRECRUIRECORREIGLCHURCE अय-अनंतकालका विस्तारत इदानींतन कहिये इ अवसर वर्तमान जो अवसर्पिणीकाल तामें आभासमान ऐसा आदिजिन युगकी आदिमें सर्वेश्वर दयालु है सो धर्योपदेशती हवौ ॥२३॥ तं विश्वदृश्वांतिमतीर्थनाथश्चराचरज्ञानविलोकितार्थः । श्रीगोतमाख्यं गणिनं सभायामुद्दिष्टवान् सप्तसमृद्धिपण्यं ॥ २४ ॥ अर्थ-विश्वकूदखनेवाला चराचर ज्ञानकर विलोकित किया है पदार्थ जाने ऐसा अंतिम तीर्थकर श्रीवर्धपाननामा उस धर्मकू सप्त ऋदिसमद गोतम नामक गणधरने उपदेश करता भया ॥ २४ ॥ तेनातिकारुण्यरसप्रयोगात्तं द्वादशांगेन परा मुनींद्राः। पदार्थसार्थ विकसय्य तत्त्वप्रकाशमात्र सहसोपदिष्टाः ॥ २५ ॥ अर्थ-ता समय श्रीगौतम स्वामीने अत्यंत करुणारसके योगत ता उपदेश द्वादशांगरूप रचनाकरि अपर मुनींद्र जे हैं ते सहसा ही पदार्थ समूहने प्रकाशकरि तत्त्वमात्र उपदिष्ट किये ॥२५॥ . ततः प्रभृत्यद्यगुरुप्रवाहपरम्पराप्राप्तममुं यथार्थं । श्रीकुन्दकुन्दो यशसा चरित्रवृत्तन कुन्दो विभरांबभूव ॥ २६ ॥ अर्थ-ताके आगे अवार गुरुपरंपरा करि प्राप्त भया अर्थकू यथार्थ यश अरु चारित्र धारणकरि उज्वल कुंदकुंद नामक श्रीगुरु धारण करता भया ॥२६॥ चतुर्थकालस्य सपक्षनागप्रमाणमासे त्रिकवर्षशेषे । श्रीवीरनाथः शिवमाप तस्मादनु वयं केवलिनां बभाषे ॥ २७ ॥ अर्थ-इस अवसर्पिणीका चौथाकालका साढा आठ महिना अरु तीनवर्ष बाकी रह तदि श्रीवीर जिन मुक्ति प्राप्त भये ता पीके तीन केवली प्रकाशमान रहे ॥२७॥ श्रीगोतमश्चापि सुधर्मनामा जम्बूमुनीशस्तदिमे द्विषष्टिः । CAKALIGARPECRUARBARROCRAC Jain Educati elibrary.org For Private & Personal Use Only o nal

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