Book Title: Pratishthapath Satik Author(s): Jaysenacharya, Publisher: Hirachand Nemchand Doshi Solapur View full book textPage 9
________________ ACEC%ARSHRECTOR-SCRECORENCEOCTOR निःकलंक निरावण निज ज्ञानने अवलंबन करि केवलज्ञानकू प्राप्त होय सव करका अभावत चिन्मात्र ज्योतिने प्राप्त हुए हैं ते सिद्ध परमेष्ठी मैं करि पूजिये हैं अर्थात मैं उनकी स्तुति करूं हूँ॥४॥ " रथोद्धता छंदः। आजवंजवमुदीर्णपातकज्वालमालविकरालमुत्पथं । देशनातिशयसौधवर्षणाच्छांतिमीयुरनघा दिगंबराः ॥५॥ स्रग्धरावृत्तम् । शिक्षादीक्षाविधानात्सकलमुनिगणे नेतृतां संविधाय कृत्वोदासीनतां ये निजपरमहितानंदने संयुजानाः । प्राचार्या आर्यभव्यैः कृतचरणसपर्याः स्तुता विघ्नशांत्यै भूयासुर्मारदर्पप्रकदननिपुणाः शास्त्रसम्पत्तिमूलाः ॥ ६ ॥ अर्थ-उत्कट पापकी ज्वाला समूहकरि विकराल उन्मार्गरूप आजव जव जो आवागमनरूप संसार जो है ताहि उपदेशका अतिश्यरूप । अमृतसंबंधी वर्षाकरि शांतिभावनै प्राप्त किये ऐसे निःपाप दिगम्बर जे हैं ते शिक्षा दीक्षाका विधानतें समस्त मुनि संघमें निर्यापकताने प्राप्त होय बैराग्यरूप साम्यभाव करि आत्महितका प्रानन्दनै जो. ऐसे आचार्य परमेष्ठी जे हैं ते शोभित भव्यनिकरि किया है पूजन स्तुति जिनका ऐसे होत संते मेरे विघ्नकी शांतिके अर्थ होऊ अर कामदेवके विकारका निर्मूलनमें निपुण और शास्त्रनिकी निजसंपत्तिके मूलभूत ॥५-६॥ ऐसें ये दोन्यू श्लोक युग्म हैं। बसंततिलका छदः। ये पाठका निखिलमागममर्हसाधून संपाठयंति बहुवत्सलताप्रवृत्त्यै। ते द्वादशांगजलधिप्रकरार्थरत्नान्यापादयतु हृदि मे मतिभूषणार्थ ॥७॥ अर्थ-जे उपाध्याय परमेष्ठी समस्त आगम कहिये जिनसूत्र जो है ताहि वहु वात्सल्यताकी प्रवृत्तिके अर्थि साधु जे हैं तिनने पटावे हैं ते मेरे हृदयवि ज्ञानकी संपत्तिके निमित्त द्वादशांग समुद्रका प्रकर्ष अर्थरूप रत्न जे हैं तिननें प्राप्त करो अर्थात् देवौ ॥७॥ GRESSURESOURCEPRESEASE Jain Educati o nal For Private & Personal use only IIRallelibrary.orgPage Navigation
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