Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 23
________________ संयोग को अन्य मतावलम्बी अलग-अलग नाम से पुकारते हैं । वेदान्ती माया, सांख्य दर्शनकार प्रकृति एवं जैन कर्म कहते हैं अर्थात् भिन्न-भिन्न दर्शनों में पाया जाने वाला भेद केवल शाब्दिक ही है। तात्त्विक रूप से कोई भेद नहीं है । आत्मा के साथ कर्म का संयोग होना यह आत्मा की योग्यता ही है यही आत्मा का अनादि स्वभाव है अत: कर्म-संयोग भी अनादि है । तथापि जीव साधना स्वरूप पुरुषार्थ से कर्म-संयोग का नाश करके सर्वथा शुद्ध बनने का स्वभाव भी रखता है । कुछ परंपरा यह मानती है कि ईश्वर की कृपा से ही जीव इस अनादि बन्धन से छूट सकते हैं । इस विषय में ग्रंथकार कहते हैं कि जीव की योग्यता के बिना ईश्वर-कृपा सफल नहीं होती है अन्यथा जड़-परमाणु के ऊपर किसी देव का महान अनुग्रह उसे आत्मा-चेतन में बदल देगा जो कभी भी संभव नहीं है। इस प्रकार योग्यता के कारण ही जीव कर्म का बन्ध करता है और जीव कर्म से मुक्त भी होता है। इसीलिए तात्त्विक रूप से योगमार्ग की साधना भी सम्भव होती है । इससे विपरीत यदि आत्मा की योग्यता रूप धर्म का स्वीकार न करने पर आत्मा को कूटस्थ नित्य या अनित्य मानना पड़ेगा । ऐसी स्थिति में आत्मा को जन्म, मृत्यु आदि विविध परिणाम ही संभव नहीं हो पायेंगे । अतः आत्मा नित्यानित्यात्मक है । यहाँ ग्रंथकार कहते हैं कि - लोकशास्त्राविरोधेन यद्योगो योग्यतां व्रजेत् । श्रद्धामात्रैकगम्यस्तु, हन्त ! नेष्टो विपश्चिताम् ॥२२॥ लोक और शास्त्र में अविरुद्ध योग ही यथार्थ योग कहलाता है। केवल श्रद्धा मात्र से माना गया योग बुद्धिमानों को इष्ट नहीं है । शास्त्र-वचन भी प्रत्यक्ष एवं अनुमान आदि प्रमाणों से बाधित न हो वही ग्राह्य हो सकता है । योग के पाँच प्रकार : अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ॥३१॥ __ अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्तिसंक्षय ये पाँचों मोक्ष के साथ जोड़ते हैं इसलिए ये पाँचों योग हैं और उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठता है। आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टि समुच्चय में योगसूत्र की प्रचलित अष्टांग योग की परंपरा को स्वीकार करते हुए अपनी नई विचार शैली से आठ दृष्टियों में उनका समन्वय किया है । किन्तु इस ग्रंथ में उन अष्टांग की जगह पर पाँच अंगों का वर्णन किया है। ये पाँच अंग भी अष्टांग योग की तरह ही उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने गये हैं । इन पाँच अंगों का विस्तार से वर्णन करने से पूर्व ग्रंथकार योग का माहात्म्य दर्शाते है । योगमाहात्म्य : आचार्य हरिभद्र के अनुसार योग उत्तम कल्पवृक्ष है, परमचिन्तामणि रत्न है, सर्व धर्मों में

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