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योगबिंदु अनेक दुःखों को भोग रहा हैं। ऐसे अनादि कालीन द्रव्य और भाव कर्मरूपी मैल को जीव, शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप योगमय अग्नि से, योग के विविध प्रयोगों से दूर करके, मन, वचन और काया की शुद्धि प्राप्त करता है और अनुक्रम से आत्मा को परम शुद्ध-सिद्ध-बुद्ध बना लेता है । योग रूपी अग्नि से आत्मा के तमाम कर्ममलों को जलाकर उसे परम शुद्ध बना लेता है।
__ अविद्या का अर्थ यहाँ अद्वैतोक्त परिभाषा के अनुसार नहीं लेना केवल 'भ्रान्ति' यही इसका सामान्य अर्थ है । सद्भूत ऐसी जिन परमात्मा द्वारा कही गयी तत्त्वरूप वस्तु के विषय में भ्रान्ति अर्थात् अनिश्चय, संशय ऐसा अर्थ टीकाकार करते हैं ॥४१॥
अमुत्र संशयापन्नचेतसोऽपि ह्यतो ध्रुवम् ।
सत्स्वप्नप्रत्ययादिभ्यः संशयो विनिवर्त्तते ॥४२॥ अर्थ : परलोक सम्बन्धी शंकित चित्त वाले का संशय भी इस योगाभ्यास द्वारा सत्य स्वप्नों से तथा प्रत्यय-प्रतीति स्वानुभव से निश्चित ही दूर हो जाता है ॥४२॥
विवेचन : परलोक, पुनर्भव सम्बन्धी संशय जिसके चित्त में हैं, ऐसे व्यक्ति को भी योग का अभ्यास करने से शुद्ध स्वप्न आते हैं, स्वप्न में तथा स्वयं-प्रत्यक्ष अनुभव में परलोक सम्बन्धी दृश्य देखने से उसका परलोक सम्बन्धी संशय चला जाता है। योगाभ्यास करने से मनुष्य को जातिस्मरण ज्ञान हो जाता है और स्वानुभव तो सभी प्रमाणों में बलवान है । शुद्ध सामाचारी, आचार पालने वाले आत्मज्ञान के अभ्यासी, दर्शन, ज्ञान, चारित्र योग को धारण करने वाले योगी मुनियों का पुनर्भव का संशय चला जाता है । उन्हें अपने शुद्ध-शुभ स्वप्नों में पुनर्भव प्रत्यक्ष अनुभव गम्य हो जाता है।
संक्षेप में योग द्वारा आत्मा जब निर्मल हो जाते है तो परलोक-पुनर्भव उसे प्रत्यक्ष हो जाता हैं । योग द्वारा परलोक अनुभवगम्य वस्तु है ॥४२॥
श्रद्धालेशान्नियोगेन बाह्ययोगवतोऽपि हि ।
शुक्लस्वप्ना भवन्तीष्टदेवतादर्शनादयः ॥४३॥ अर्थ : केवल बाह्य क्रियायोग करने वाले को विशुद्ध अल्प श्रद्धा के कारण ऐसे शुक्ल स्वप्न आते हैं, जिसमें वह इष्टदेव आदि का दर्शन करता है ॥४३॥
विवेचन : पूर्ण श्रद्धा नहीं, अल्प श्रद्धा अर्थात् देवगुरुधर्म के उपर बहुमान-आदर पूर्वक जो श्रद्धा, वह प्रमाण में थोड़ी हो तो भी, बाह्य क्रियायोग से केवल बाह्य तप, जप, देवस्तुति, गुरुभक्ति, दान, शील, भावना आदि करने से भी, चित्त की स्थिरता न हो-चलचित्त हो, तो भी