Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ ५४ योगबिंदु विवेचन : प्रशम प्रधान तप द्वारा जिनकी हृदयशुद्धि हो चुकी है, ऐसे योगमार्ग के मर्म को जानने वाले, अनुभवी योगीन्द्रों-पतञ्जलि आदि तथा सर्वप्रकार के कर्मफल से रहित ऐसे तीर्थंकर केवली भगवन्तों ने भविष्य में होने वाले योगसाधकों के हित के लिये स्वमत-अभिनिवेशरूपी मोह को दूर करने में दीपक समान वचन उद्घोषणा पूर्वक कहे हैं। महापुरुष जानते हैं कि वाद-विवाद बहुल कलिकाल युग आने वाला है । ऐसी स्थिति में लोग वचनजाल में भटक जायेंगे, इसलिये उन्होंने भारपूर्वक यह उद्घोषणा की है ॥६६॥ वादांश्च प्रतिवादांश्च वदन्तो निश्चितांस्तथा। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति तिलपीलकवद् गतौ ॥६७॥ अर्थ : निश्चित ऐसे वाद-प्रतिवाद करने वाले विवादी तिलपीलक(कोल्हू के) बैल की गति की भाँति कभी भी तत्त्व के निश्चय को प्राप्त नहीं करता ॥६७॥ विवेचन : पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष रूप वाद-प्रतिवाद में अत्यन्त निपुण व्यक्ति की स्थिति भी ऐसी ही है जैसी स्थिति गोल-गोल घूमने वाले कोल्हू के बैल की होती है। आँखों पर पट्टा बंधा हुआ है, वैसा कोल्हू का बैल सारा दिन चक्कर काटता रहता है। सारा दिन उसकी गति चालू रहती है, लेकिन फिर भी शाम को वह जहा था वहीं पर ही होता है। उसकी गति का अन्त ही नहीं आता। इसी प्रकार वाद-प्रतिवाद करनेवाला स्वमताभिनिवेश रूपी पट्टा बांध कर स्वपक्ष की स्थापना और परपक्ष की उत्थापना की उधेड़बुन में लगा ही रहता है, लेकिन इससे वह तत्त्व के हार्द को नहीं पा सकता । बुद्धिबल से तर्क-वितर्क, वाद-प्रतिवाद में चाहे वह अपना बुद्धि कौशल्य दिखा दे, परपक्ष को हरा दे और स्वयं जीत जाय, परन्तु अन्दर से वह बिल्कुल कोरा ही रहता है। इसीलिये महापुरुषों ने भाव योग यानीहृदय की शुद्धिरूपी योग को ही श्रेष्ठ बताया है, वाणी-विलास तो पतंगों को जैसे दीपक मोह पैदा करता है, वैसे बुद्धि को मोहित करने वाला है ॥६७|| अध्यात्ममत्र परम उपायः परिकीर्तितः । गतौ सन्मार्गगमनं यथैव ह्यप्रमादिनः ॥६८॥ अर्थ : जैसे किसी विशिष्ट नगर में पहुँचने के लिये पथिक को सन्मार्ग का गमन श्रेष्ठ उपाय है, वैसे ही तत्त्वनिश्चय के लिये अध्यात्म को ही श्रेष्ठ उपाय बताया है ॥६८! विवेचन : इस श्लोक में ग्रंथकार ने जो दृष्टान्त दिया है, उसमें मुख्य दो बातें बताई हैं एक तो सन्मार्ग का निश्चय और दूसरा प्रमाद रहित होकर उस पर चलना । अगर मनुष्य सावधान होकर ऐसा करे तो वह जरूर अपने लक्ष्य स्थान पर पहुंच जाता है। इसी प्रकार आत्मादि तत्त्वों का निश्चय करने के लिये अन्य सभी उपायों में अध्यात्म-भावयोग को श्रेष्ठ उपाय बताया है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108