________________
योगबिंदु
५५
जैसे किसी मुसाफिर को किसी अमुक शहर में पहुँचना है, तो जो सड़क - राजमार्ग उस शहर में सीधा पहुँचता है, उस पर प्रमाद रहित होकर चलना शुरु कर दे तो वह अपने इच्छित स्थान को उपलब्ध कर लेता है, इसी प्रकार जिस साधक को आत्मा, कर्म, मोक्ष आदि तत्त्वों का निश्चय करना है उस पथिक के लिये महापुरुषों ने अध्यात्म को अन्य सभी उपायों से श्रेष्ठ बताया है, क्योंकि अध्यात्म योग तत्त्वनिश्चय में राजमार्ग जैसा निश्चित मार्ग है, जिस पर चल कर साधक सभी तत्त्वों का आत्म साक्षात्कार कर लेता है ॥ ६८ ॥
मुक्त्वातो वादसंघट्टमध्यात्ममनुचिन्त्यताम् । नाविधूते तमस्कन्धे ज्ञेये ज्ञानं प्रवर्तते ॥ ६९ ॥
अर्थ : इसलिये वादसंघटु वादविवाद के संघर्ष को छोड़कर अध्यात्मभाव का चिन्तन करें (क्योंकि मिथ्यात्वरूपी) अन्धकार, समूह को दूर किये बिना ज्ञेय ( आत्मादि) में ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती ॥६९॥
विवेचन : अध्यात्म द्वारा ही संपूर्ण मल नाश हो जाने से योगी की निर्मल आत्मा, आत्मादि तत्त्वों को प्रत्यक्ष देखती है, लेकिन वाद-प्रतिवाद के चक्कर में फंसा हुआ व्यक्ति स्वमत के मिथ्याअभिनिवेश के कारण मानसिक घर्षणरूपी अज्ञानान्धकार से घिरा रहता है, सिवाय शब्द जाल के विवादी कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाता । जब तक अज्ञानान्धकार है, ज्ञेय - आत्मादि विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती, इसलिये ग्रंथकार ने वाद-विवाद के संघर्षमय विकल्प को छोड़ देने की और अध्यात्मभाव को अपनाने की सलाह दी है ॥ ६९ ॥
सदुपायाद् यथैवाप्तिरुपेयस्य तथैव हि ।
नेतरस्मादिति प्राज्ञः सदुपायपरो भवेत् ॥७०॥
"
अर्थ : क्योंकि सम्यक् उपाय से ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है, असम्यक् अन्य उपाय से नहीं; इसलिये बृद्धिमान सम्यक् उपाय का ही आश्रय लें ॥७०॥
विवेचन : प्राज्ञ - बुद्धिमान वह है जो सत्य-असत्य, युक्त- अयुक्त का विवेक रखें । प्राज्ञ पुरुष सर्वत्र विवेक पूर्वक गति करता | ग्रंथकार का अभिप्राय है कि मोक्षप्राप्ति और आत्मादि तत्त्व निश्चय में जो मार्ग सम्यक् श्रेष्ठ है; सत्य है; बुद्धिमान को उसी सच्चे मार्ग पर चलना चाहिये, उसी का आश्रय लेना चाहिये जो सीधा अपने लक्ष्य तक पहुँचा दें, क्योंकि जो मार्ग लक्ष्य तक न पहुँचाये उस पर चलने वाला पथिक भटक जाता है, और दुःखी होता है ॥७०||
सदुपायश्च नाध्यात्मादन्यः संदर्शितो बुधैः ।
दुरापं किंत्वोऽपीह भवाब्धौ सुष्ठु देहिनाम् ॥७१॥