Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 101
________________ योगबिंदु तपश्चर्या :- अणसण अर्थात् आहार का त्याग करना, उपवास, छठ्ठ, अठ्ठम आदि करना। उणोदरी-भूख से कम आहार लेना । वृत्तिसंक्षेप, जीव को खाने, पीने, पहनने, ओढ़ने की अनेकों इच्छाएँ होती है, उनका संक्षेप-कम करना । इच्छाओं को सीमित करना । रसत्याग घी, दूध, दही, गुड़, तेल, मधु (शहद), मक्खन आदि मादक, विकार पैदा करने वाले पदार्थों का त्याग करना । कायक्लेश – शरीर को सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर आदि परिषहों से होने वाले दुःखों को शान्ति पूर्वक सहना । संलीनता-अंगोपांग का संकोच करना - विवेक से बैठना, उठना, चलना-फिरना आदि क्रिया करना । ये बाह्य तप हैं। उपरोक्त बाह्य तपों के अतिरिक्त छ: आंतरिक तप है : स्वाध्यायो, विनयो ध्यान व्युत्सर्गों व्यावृत्तिस्तथा । प्रायच्छित्तमिद प्रोक्तं तपः विद्यामान्त्रम् ॥ स्वाध्याय-शास्त्राभ्यास व स्व का अध्ययन करना विनय-गुरुजनों का आदर सत्कार करना, हृदय में सरलता और नम्रता रखनी । ध्यान-धर्म और शुक्लभाव का ध्यान करना । व्युत्सर्ग-शरीर की ममता त्यागरूप काउस्सग्ग करना । व्यावृत्ति-संसार प्रवृत्ति से दूर रहकर, आत्मा में रमण करना । प्रायश्चित्त-प्रमाद, कषायादि के कारण हुये अशुभ आचरण का पश्चात्ताप करना और दुबारा ऐसा न हो, ऐसा दृढ़ निश्चय करना। ये आभ्यन्तर तप हैं, इन से अनन्त कर्मों की निर्जरा होती है और आत्मा हल्का हो जाता है। सवेदाध्ययन:- जिससे आत्मा के प्रमाद और कषाय कमजोर पड़े, आत्मा जड़ चेतन के भेद का पालन करे ऐसे भाववाही वीतराग प्ररूपित सत् शास्त्रों का अध्ययन करना । विद्यामंत्रविशेष :- अमुक व्यक्ति को वश में करने की विद्या; अथवा भूत, पिशाच, देवता आदि वश में हो, ऐसी साधना; अथवा सोलह विद्या देवियों की आराधना करने की विशेष प्रकार की शक्ति, वह भी विद्या कही जाती है और मंत्रविशेष जिससे सर्प, बिच्छु आदि का जहर उतरता है अथवा ॐकार रूप प्रणवमंत्र, हींकार रूप मायामंत्र तथा सूरिमंत्र आदि आत्मा की शक्ति बढ़ाने वाले मंत्र हैं । इन विद्या और मंत्रों का स्वरूप व्याकरण में प्रसिद्ध है वहीं से जान लेना चाहिये। सत्तीर्थ की सेवा :-"तारयति भवसमुद्रात् इति तीर्थः" । तीर्थ दो प्रकार के हैं, स्थावर और जंगम-स्थावर-वीतराग परमात्मा की कल्याणक मूर्तियाँ और जंगम-साधु, साध्वी, सुगुरु, सुधर्म और सुदेव की सेवाभक्ति करना, माता-पिता की सम्यक् सेवा करना, उनकी आज्ञा शिरोधार्य करना, उनकी शिक्षा को जीवन में उतारना, उनका आदर सत्कार-विनय करना आदि । देवादिशोधना :- सुगुरु, सुधर्म, सुदेव की विवेक पूर्वक परीक्षा करना; अठारह प्रकार के

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