Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 99
________________ योगबिंदु आमोषधि, विप्रोषधि, श्लेश्मोषधि, जल्लोषधि (पसीना, मूत्र, थूक आदि) संभिन्नश्रोत (पंचेन्द्रिय के विषयों को एक इन्द्रिय से जानना), ऋजुमति, सर्वोषधि (योगियों का मैल सर्वरोगों को नाश करने वाला है), चारण, आशीविष (भयंकर सर्प बिच्छु, जहरीले जीवों के जहर को नष्ट करने की शक्ति), केवलज्ञान शक्ति, मनः पर्यय ज्ञान शक्ति, पूर्वधरशक्ति, अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि सभी शक्तियां योगी प्राप्त करता है तथा टीकाकार ने और भी कहा है : अलौल्यमारोग्यमनिष्ठरत्वं, गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च, योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि लिङ्गम् ॥ मैत्र्यादियुक्तं विषयेषु चेतः, प्रभाववधैर्यसमन्वितम् च । द्वन्द्वैरधृष्यत्वमभिष्टलाभो; जनप्रियत्वं च तथा परं स्यात् ॥ दोषव्यपायः परमा च तृप्तिरौचित्ययोगः समता च गर्वी । वैरादिनाशोऽथऋतम्भरादि निष्पन्नयोगस्य तु चिह्नमेतत् ॥ साधक योगमार्ग में प्रवेश करते ही पांच इन्द्रियों के पाँचों विषयों में लालचरूप अत्यन्त आसक्ति को छोड़ देता है । परिणाम-स्वरूप शरीर में कोई रोग नहीं होता, इसलिये उसे आरोग्य लाभ होता है । तामसिक और राजसिक प्रकृतिकारक आहार तथा भोगों को छोड़ देता है इसलिये उसके हृदय में निर्दयता नहीं रहती, अर्थात् सत्त्व प्रकृति कारक आहार करने से उसका हृदय कोमल और संवेदनशील हो जाता है। योगी के शरीर में सुगन्ध प्रकट होती है, क्योंकि दुर्गन्ध देने वाले सभी बुरे विचारों का बिल्कुल अभाव होता है । मूत्र और विष्ठा अल्प-मात्रा में होते है । शरीर में कान्ति प्रकट होती है। लोगों पर प्रभाव पड़ता है । स्वर में-भाषा में सौम्यता, मृदुता आती हैं, इष्टलाभ होता है, वैरादि का नाश होता है । तथा आगम तथा अनुमान द्वारा जानी हुई वस्तु को ध्यानाभ्यास से, तीन प्रकार की द्रव्यमय, गुणमय और पर्यायमय कल्पना के द्वारा, जिसका उच्चारण न हो सके परन्तु आत्मा से अपने निजानुभव से ही मालुम हो, ऐसी ऋतंभरा बुद्धिरूप ज्ञान अथवा महाप्रज्ञा आत्मा में योग के बल से ही प्रकट होती हैं । इस प्रकार योगाभ्यास द्वारा उपरोक्त दोषक्षय और अनेक प्रकार की सिद्धियाँ - लब्धियाँ प्राप्त होती है। उनका स्वरूप आप्तपुरुषों ने, आगमों में बड़ी सुन्दर रीति से समझाया है ॥५५॥ न चैतद् भूतसंघातमात्रादेवोपपद्यते । तदन्यभेदकाभावे, तद्वैचित्र्याऽप्रसिद्धितः ॥५६॥ अर्थ : उपरोक्त योगमाहात्म्य भूतसंघात मात्र से घटता नहीं, क्योंकि भूतसंघात से, अन्यआत्मा के अभाव में भूतसंघात की विचित्रता कैसे घटे ? ॥५६॥

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