Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 96
________________ ४४ योगबिंदु है। इसलिये चेतन उनका स्वरूप नहीं हो सकता । “यत्र-यत्र चेतना तत्र-तत्र आत्मा" यह व्याप्ति, सर्वत्र सिद्ध है, क्योंकि आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, उपयोग आदि गुणधर्म से युक्त है और उसे ही चेतना कहते हैं । चेतना का भी यही लक्षण है । अगर इन पंचभूतों में चेतना स्वीकारें, तो इनमें चेतना किसी को भी प्रत्यक्ष नहीं होती । पंचभूतों-पदार्थों में कठिन, कोमल, भारी, हल्का, मोटा, पतला, खुश्क, चिकना, मुलायम और खुरदरा आदि गुण रहते हैं । इन्द्रियों से हम सभी इन्हें प्रत्यक्ष देखते हैं । इसलिये ये सब जड़ स्वभाव वाले हैं । आत्मा तो चेतन स्वरूप है, भूतों के धर्म उसमें घटते नहीं । जो जड़ है वह चेतन कैसे हो सकता है ? इसलिये दोनों के अपने-अपने धर्म हैं। अपनी-अपनी सत्ता है । संसार में विविध विचित्रताएँ भी कर्म को ही आभारी हैं । अनुमान प्रमाण से हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है जैसा कि टीकाकार ने संस्कृत में कहा हैं । तुल्यप्रतापोद्यमसाहसानां, केचिल्लभन्ते निजकार्यसिद्धिम् । परे न तामत्र निगद्यतां मे, कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः ॥ विचित्रदेहाकृति-वर्ण-गंध-प्रभाव-जाति-प्रभवस्वभावाः । केन क्रियन्ते भुवनेङ्गिवर्गाश्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः ॥ विवर्य मासान्नव गर्भमध्ये, बहुप्रकारैः कललादिभावैः । उद्वर्त्य निष्कासयते सवित्र्याः, को गर्भतः कर्म विहायपूर्वम् ॥ कर्म के अतिरिक्त ये विविधताएँ असम्भव हैं । इस प्रकार योगीप्रत्यक्ष से, अनुमानप्रमाण से, आगमप्रमाण से भी आत्मादि कर्म और पुनर्भवादि अतीन्द्रिय पदार्थ सामान्य मनुष्य को परोक्ष होने पर भी युक्ति से सिद्ध है ॥५१॥ किञ्चान्यद् योगतः स्थैर्य धैर्यं श्रद्धा च जायते । मैत्री जनप्रियत्वं च प्रातिभं तत्त्वभासनम् ॥५२॥ अर्थ : योग से अन्य और भी स्थैय, धैर्य, श्रद्धा, मैत्री, लोकप्रियता प्रतिभा तथा जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञान सहजबुद्धि जन्य होता है ॥५२॥ विवेचन : पूर्वोक्त योग के अन्य फलों के अतिरिक्त आन्तरिक उपलब्धियां भी प्राप्त होती हैं । योगी को स्थिरता के लिये श्रीमद् राजचन्द्रजी ने अपूर्व अवसर में सुन्दर लिखा है : आत्मस्थिरता त्रण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते देहपर्यंत जो; घोर परिसह के उपसर्ग भये करी, आवी शके नहि ते स्थिरतानो अन्त जो ।

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