Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 90
________________ ३८ योगबिंदु अप्रमत्तयोगी हैं – सतत् जागृत रहते हैं, उनके उपर इसका कोई असर नहीं होता । यहाँ पर ग्रंथ कर्ता ने काम की शक्ति से भी योग की शक्ति को बलवान बताया है । यद्यपि काम बलवान है, फिर भी अप्रमत्त अवस्था उससे भी बलवान है । युद्ध में मजबूत कवच धारण करने वाले योद्धा को कोई नुकसान नहीं होता । इसी प्रकार जो योगी अप्रमत्तयोग को अपना कवच बना लेते हैं ऐसे अप्रमत्तयोगी पाच विषयों से दूर रहकर, चित्त की स्थिरता में अडिग रहकर, योग से मोह को जीत लेते है । परन्तु जिस साधक के पास अप्रमत योगरूप कवच नहीं, वह तपश्चर्या करने पर भी मन से विषयों का ध्यान करता है और कामदेव से पीड़ित होकर संसार में भटकता है ॥३९॥ अक्षरद्वयमप्येतच्छ्यमाणं विधानतः । गीतं पापक्षयायोच्चैर्योगसिद्धैर्महात्मभिः ॥४०॥ अर्थ : योगसिद्ध महात्माओं ने घोषित किया है कि 'योग' यह दो अक्षर विधि-पूर्वक सुने जाय तो वह पापक्षय के लिये होता है ॥४०॥ विवेचन : योग में जो पूर्ण निष्णात, सिद्ध हो चुके हैं ऐसे तीर्थंकर, गणधर, योगी महात्माओं ने फरमाया है कि पंच नमस्कार मंत्र में तो अनेक अक्षर हैं, लेकिन 'योग' इस शब्द में तो केवल दो ही अक्षर हैं, किन्तु वे मंत्रमय शब्द माहात्म्यपूर्ण हैं, क्योंकि योग शब्द सुनने वाला और बोलने वाला उसके यथार्थ अर्थ को न समझने पर भी विधि पूर्वक श्रद्धा, संवेग, निर्वेर, समभाव, अनुकम्पा आदि शुद्धभाव युक्त, सुख उल्लासपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर योगमुद्रा से सुने तो वह पापक्षय-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद आदि जो पाप के मूलकारण है उनका नाश करने वाला होता है । योग अशुभ कर्मों को मूल से नाश करता है ॥४०॥ मलिनस्य यथा हेम्नो वह्नः शुद्धिर्नियोगतः । योगाग्नेश्चेतसस्तद्वदविद्यामलिनात्मनः ॥४१॥ अर्थ : जैसे मलिन स्वर्ण की शुद्धि, अग्नि के योग से होती है; वैसे ही अविद्या से मलिन आत्मा के चित्त की शुद्धि, योगानि से होती है ॥४१॥ विवेचन : खान से निकले मलिन स्वर्ण में ताम्बा, लोहा, कथीर और मिट्टी आदि अनेक धातुएँ मिश्रित होती हैं । उसे शुद्ध करने के लिये सर्व प्रथम क्षार और जल से मिट्टी आदि दूर की जाती है, पश्चात् अग्नि द्वारा तमाम अन्य मिश्रित कुधातुओं को दूर किया जाता है, फिर वह अपने असल शुद्ध देदीप्यमान स्वर्ण रूप में हमारे सामने आता है-उसी प्रकार जीव अनादि कालीन अविद्यारूप मिथ्यात्व, राग, द्वेष मोह, माया से कर्म के साथ क्षीरनीर की भांति एक स्वरूप बना हुआ है इसीलिये सत्य वस्तु का भान होता नहीं और भ्रान्ति से कर्मबन्धन करता हुआ संसार में

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