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योगबिंदु
१७ पर मथनी का उपचार जो किया गया है उसमें कितनी ही असम्बन्धित लोक कथाओं का आधार लिया गया है, परन्तु वह मुख्य वस्तु के यथार्थ स्वरूप को प्रकट नहीं करता, इसलिये वह व्यभिचारी उपचार है, वास्तविक नहीं । परन्तु मुख्य अर्थ को ध्यान में रखकर उसके भावानुसार जो उपचार किया जाता है; उसमें यथार्थता दृष्टिगोचर होती है। यहाँ जीव कर्मबन्ध की योग्यता से संसार भ्रमण करता है और भव्यत्व स्वभावरूप योग्यता से मुक्ति प्राप्त करता है। किन्तु यदि सद्गुरु के योग से जीव मोक्ष प्राप्त करता है तो यहाँ सद्गुरुदेव के दर्शन एवं उपदेश श्रवण से जो धर्मप्रवृत्ति हुई उसमें सद्गुरुदेव की कृपा मानकर, उपचार किया गया है क्योंकि वह मुख्यार्थ को ध्यान में रखकर किया गया है। यह उपचार मुख्य अर्थ का बाधक नहीं बनता। इस प्रकार सभी तरह से यही व्यवस्था उचित है - यथार्थ है अर्थात् जीव की योग्यता मुख्य है और अनुग्रह औपचारिक है ! मुख्य अर्थ का सहायक है, पूरक है।
ग्रंथकार का आशय है कि लोक में भी जो उपचारयुक्त भाषा बोली जाती है, उसका कारण भी मुख्य पदार्थ ही होते हैं । मुख्य पदार्थों को देखकर, लक्ष्य में रखकर, ध्यान में रखकर ही लोग औपचारिक भाषा बोलते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि उपचार कभी निराधार नहीं हो सकता । अतः ये सारी बातें 'आत्मा की योग्यता', 'कर्म का बन्ध' और 'कर्म से मुक्ति' आदि समस्त विचार वास्तविक विद्यमान वस्तु पर अवलम्बित है, इसमें कोई रीत पद्धति औपचारिक नहीं है ऐसा ही मानना चाहिये ॥१५॥
ऐदम्पर्यं तु विज्ञेयं सर्वस्यैवास्य भावतः ।
एवं व्यवस्थिते तत्त्वे योगमार्गस्य संभवः ॥१६॥ अर्थ : पूर्वोक्त (जितना कह चुके हैं) इस सारे ग्रंथ का वास्तविक परमार्थ यह फलित हुआ कि आत्मा आदि तत्त्व, इस प्रकार (हमारे कथनानुसार) सुव्यवस्थित होने पर ही योगमार्ग सम्भव है ॥१६॥
विवेचन : पूर्व में १५ श्लोकों में जो भी तत्त्वचर्चा हुई है, उससे परमार्थ यह फलित हुआ कि आत्मा-जीव और कर्म दोनों मुख्य है, दोनों में योग्यता है और उसके कारण संसार और मोक्ष सम्भव बनता है। आत्मा के प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गल के संयोग से संसार और उसके वियोग से मोक्ष। यह भी मुख्य है औपचारिक नहीं । ऐसी व्यवस्था स्वीकार करने से ही योगमार्ग सम्भव है। मोक्ष प्राप्ति में जो भी सत् प्रवृत्ति, परम पुरुषार्थ किया जाता है वह ऐसी व्यवस्था स्वीकार करने पर ही सफल होता है अन्यथा वास्तविक न मानकर औपचारिक-लाक्षणिक माने तो योगप्रवृत्ति को अवकाश ही नहीं रहता।
ग्रंथकार का आशय यह है कि आत्मा, आत्मा की योग्यता, कर्मबन्ध, मुक्तिफल आदि तत्त्वों