Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 75
________________ योगबिंदु २३ कोई परिणाम पैदा नहीं कर सकता । यदि आत्मा बद्ध एकांतरूप से नित्य ही है, उसमें भवमात्र परिणामान्तर पैदा नहीं हो सकता, वह आत्मा सदा ही बद्ध ही रहेगा । तथा जो आत्मा 'एकान्तअनित्यपक्षिक' है, वह आत्मा भी क्षणान्तर तक ठहर नहीं सकता । सम्यक् - योग धारा उस क्षणिक आत्मा में भी कोई दूसरा परिणामान्तर पैदा करने में समर्थ नहीं, अत: यह आत्मा भी मुक्ततारूप परिणामान्तर से युक्त नहीं हो सकती अर्थात् क्षणिक आत्मा भी मुक्त नहीं हो सकती ॥२२॥ वचनादस्य संसिद्धि-रेतदप्येवमेव हि । दृष्टेष्टबाधितं तस्मादेतन्मृग्यं हितैषिणा ॥२३॥ अर्थ : (आगम या आप्त) वचन से ही इस (योग) की सिद्धि होती है, ऐसा मानने में भी जो वचन दृष्टेष्टबाधित (प्रत्यक्ष एवं शास्त्र के अविरुद्ध) हो वही प्रमाणभूत होता है । हिताकांक्षियों को इसी तथ्य की गवेषणा करनी चाहिये ||२३|| विवेचन : कपिलदेव आदि महर्षिओं ने वेदादि वचन से योग की प्रवृत्ति मानी है । “वेदवचनात् प्रवृत्ति:’” "परलोकविधौ मौनं वचनं" परलोक के हित के लिये भी आप्त पुरुष का वचन प्रमाणभूत होने से अवश्य मननीय है । ग्रंथकार कहते हैं कि इस तथ्य को हम भी स्वीकार करते हैं लेकिन उस वचन की भी परीक्षा तो करनी चाहिये कि वह वचन दृष्ट-प्रत्यक्ष प्रमाण और इष्ट- शास्त्र प्रमाण से अबाधित हो विरोधी न हो, तभी वह प्रमाणभूत हो सकता है। जो वचन दृष्टेष्टाबाधित न हो अर्थात् प्रत्यक्ष और शास्त्र के विरुद्ध हो तो वह आप्त वचन होने पर भी माननीय नहीं, इसलिये जो आत्मा का हित चाहते हैं, उन्हें इस वचन की परीक्षा कर लेनी चाहिये । ग्रंथकार का तात्पर्य यह है कि आत्मा को एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य मानने से प्रत्यक्ष और शास्त्रीय दोनों विरोध आते हैं क्योंकि आत्मा को अवस्थान्तर स्थिति अनुभव गम्य और शास्त्रसिद्ध है, अतः कथंचित् द्रव्यरूप से आत्मा को नित्य और पर्याय परिणामीरूप से अनित्य मानने से आत्मा की अवस्थान्तर स्थितियां, बन्ध, मोक्ष आदि की सब व्यवस्था प्रत्यक्ष और शास्त्रप्रमाण से ठीक घटित हो जाती है, इसलिये आत्मा की नित्यानीत्य स्थिति माननी चाहिये । इस श्लोक की वृत्ति में आत्मा को परिणामी मानने में युक्ति बताई है कि किसी भी परोक्ष बात को प्रमाणित करने के लिये किसी आप्तपुरुष के वचन को प्रमाण मानते हैं, अर्थात् कोई विचक्षण पुरुष ऐसा कह दे कि यह विचार किंवा पदार्थ परिणामी है, तब मान सकते हैं । यदि आत्मा अपरिणामी ही है तो कोई भी पण्डित, वचन भी नहीं बोल सकता । वचन बोलने से आत्मा परिणामी सिद्ध हो जाती है । जैसे कोई मौनी व्यक्ति कुछ समय के बाद बोलता है । यह तभी हो सकता है जब आत्मा परिणामी माना जाये - आत्मा मौन धारी है, अर्थात् आत्मा कुछ भी नहीं बोलने की

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