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योगबिंदु इस ध्यान में जीव के अत्यन्त भयंकर परिणाम-अध्यवसाय होते हैं अर्थात् मानसिक व्यापार-अतिउत्कट-रौद्र-भयंकर बन जाता है ।
__धर्मध्यान : मिथ्यात्व, अविरति आदि का त्याग करके, पाँच महाव्रतों को धारण करना धर्म ध्यान है । इस धर्म ध्यान के चार प्रकार है : (१) आज्ञाविचय :- वीतराग परमात्मा की आज्ञा का पालन करना । (२) अपायविचय :- सुख-दुःख के सम्बन्ध का विचार करना । (३) विपाकविचय:- कर्मविपाक की विचारणा । (४) संस्थान विचय :- लोक स्वरूप तथा द्रव्य, गुण, पर्याय की विचारणा । आगमों में धर्म ध्यान के अन्य चार मुख्य भेदों का भी वर्णन आता है । पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ।
१. पिण्डस्थ प्रभु की प्रतिमा के सामने दृष्टि लगाकर, मन को एकाग्र करके वीतराग परमात्मा की पुण्य प्रकृति, चारित्र का विचार करना पिण्डस्थ ध्यान हैं।
२. पदस्थ : समवसरण में बैठकर, भगवान् ने जो आत्मादि तत्त्वों का प्रतिपादन किया है। उन उपदेश-आगमों को रखकर ध्यान करना पदस्थ ध्यान है।
३. रूपस्थ : वीतराग परमात्मा की आत्म स्वरूप की निर्मलता को ध्येय बनाकर, आत्मा के साथ ध्यान करना अर्थात् आत्मध्यान करना, आत्मा को उनके जैसी निर्मल बनाना रूपस्थ ध्यान है।
४. रूपातीत : निरालम्बन ध्यान; निर्विकल्प समाधि परमात्मा के दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि गुणों की तुलना अपनी आत्मा के साथ करके, अभेदभाव से ध्यान करना। यह ध्यान योग का मुख्य अंग है। पातञ्जलदर्शन में ध्यान को योग का सातवाँ अंग बताया है, परन्तु हरिभद्रसूरिजी ने इसको तीसरा अंग बताया है। समता : मन समतोलवृत्ति – उत्तराध्ययसूत्र में इसे बहुत सुन्दर तरीके से गूंथा है :
लाभालाभे सुहे दुःखे, जीविए मरणे तहा ।
समो निंदा पसंसासु; तहा माणावमाणओ ॥१॥ श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी 'अपूर्व अवसर' में कहा है :
शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शिता, माने अमाने वर्ते तेह स्वभाव जो । जीवित के मरणे नहिं न्यूनाधिकता; भव मोक्षे पण शद्ध वर्ते समभाव जो ॥ बहु उपसर्ग (कर्ता) प्रत्ये पण क्रोध नहि । वंदे चक्री तथापि न मले मान जो; इत्यादि