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योगबिंदु अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों को धारण करके, सम्यक्-दर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना करके अप्रमत्तभाव से योगी लोग धर्मध्यान और शुक्लध्यान द्वारा सर्व आस्रव द्वारों को, चार कषायों को, मन, वचन, काया के अशुभ योगों को, तमाम मन के संकल्प विकल्पों को रोककर, आत्मा को अनास्रव बनाते हैं । ऐसी आत्माएँ थोड़े ही समय में मोक्षगामी होती है। इसलिये ऐसे श्रेष्ठ योग को अनास्रव योग कहते हैं । ये सभी योग में विभिन्न अवस्था, अध्यवसायों तथा स्थितियों के सूचक हैं ॥३४॥
स्वरूपं सम्भवं चैव वक्ष्याम्यूर्ध्वमनुक्रमात् ।
अमीषां योगभेदानां सम्यकशास्त्रानुसारतः ॥३५॥ अर्थ : इन योगभेदों का स्वरूप, उत्पत्ति, आदि उपर्युक्त अनुक्रम से सम्यक् शास्त्रों के अनुसार कहूँगा ॥३५॥
विवेचन : पूर्वोक्त अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, वृत्ति संक्षय तथा तात्त्विक, अतात्त्विक, सानुबन्ध, निरनुबन्ध, सास्रव और अनास्रव भेद से ग्यारह भेद कहे हैं । इनका स्वरूप, उत्पत्ति आदि उपरोक्त अनुक्रम से तथा सम्यक् शास्त्र-आगम शास्त्रों में तीर्थंकर, परमात्मा, गणधर, पूर्वधर आदि आप्त पुरुषों ने जैसा कहा है उनके अनुसार ही कहूँगा ।
ग्रंथकार कहते हैं कि इस योगशास्त्र में जो भी योग विषयक कुछ कहा गया है, तीर्थंकर महापुरुषों की आज्ञानुसार ही कहा गया है । उन्होंने अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहा ॥३५||
इदानीं तु समासेन योगमाहात्म्यमुच्यते ।
पूर्वसेवाक्रमश्चैव प्रवृत्त्यङ्गतया सताम् ॥३६॥ अर्थ : अभी तो संक्षेप में योग का माहात्म्य बताते हैं और योग में सन्तों की प्रवृत्ति का अंग-हेतु होने से योग की पूर्व सेवाक्रम पद्धति को कहते हैं ॥३६॥ ।
विवेचन : अभी कुछ श्लोकों में योग की महत्ता का वर्णन करके उसकी शक्ति सामर्थ्य का निरूपण करके, सन्त-महापुरुष योग में प्रवृत्ति कर सके, इसलिये योग की पूर्वभूमिका रूप गुरुदेवादि की पूजारूप पद्धति परिपाटी को बताते हैं ॥३६॥
योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः ।
योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्धेः स्वयंग्रहः ॥३७॥ अर्थ : योग ही उत्तम कल्पवृक्ष है; योग ही परम चिन्तामणि रत्न है; योग ही सर्वधर्मों में प्रधान है और योग ही सिद्धि का स्वयंग्रह-लोहचुम्बक है ॥३७॥