Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 83
________________ योगबिंदु ३१ बहु आस्रव का भी कारण होती है और वह अकाम निर्जरा कही जाती है। उदात्त भावनाओं से, उदात्त वचनों से, उदात्त आचरण से, कर्मों की निर्जरा की भावना सकाम निर्जरा भावना हैं । १० लोक स्वभाव : चौदह राजलोक में रहे हुए षड्द्रव्य तथा उनके गुण, पर्याय आदि स्वरूप का तथा नित्यानीत्यादि स्वरूप की विचारणा करना ताकि ज्ञानपूर्वक मोहनाश करने की प्रवृत्ति कर सकें। ११. बोधि दुर्लभ : जीव को मनुष्यत्व, उत्तमकुल, पंचेन्द्रिय की पूर्णता, धर्मश्रवण की इच्छा, श्रद्धा इत्यादि प्राप्त होना बहुत ही कठिन और दुर्लभ है । वह पुण्यवान को ही प्राप्त होता है। इसलिये अब जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिये, इस प्रकार की भावना बोधि दुर्लभ भावना हैं। १२. धर्म भावना : धर्म की उपलब्धि और सार्मिक बन्धुओं का योग भी पुण्ययोग से ही मिलता हैं, इसलिये धर्म की आराधना अप्रमादभाव से करनी चाहिये । ऐसा विचार करना धर्मभावना है। आत्मा को ऊँचा उठाने वाली अन्य भी चार भावना कही गई है - मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ भावना । जैन जिसे चार भावना कहते हैं, बौद्ध उसे ब्रह्म विहार कहते हैं। श्रीहरिभद्रसूरि जी ने एक श्लोक में सुन्दर कहा है : परहितचिंता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । पर सुखतुष्टिर्मुदिता; परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥१॥ ये चार भानाएं आत्म-समाधि में उपयोगी होने से योग के अंगरूप में ही गिनी जा सकती हैं । जैसा विचार वैसा आचार और जैसा आचार वैसी उपलब्धि । आध्यात्मिक जीवन में भावना का बहुत महत्त्व है, क्योंकि वह तो उसका प्राण है, इसलिये भावनाओं का यहाँ कुछ संक्षिप्त परिचय दिया है । ध्यान : धर्मध्यान, शुक्लध्यान आत्मा को ऊँचा उठाते हैं इसलिये ध्यान को भी योग का अंग कहा है। जैन ध्यान के चार प्रकार मानते हैं - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । ध्यान अर्थात् मानसिक एकाग्रता । इनमें से प्रथम दो ध्यान हेय और शेष दो ध्यान उपादेय है । आर्त ध्यान : इष्ट वस्तु की अप्राप्ति, अनिष्ट वस्तु का संयोग, आजीविका तथा मृत्युभय को दूर करने के लिये तथा इष्ट को प्राप्त करने का जो प्रयत्न-मानसिक प्रयत्न है ऐसा मानसिक व्यापारआर्तध्यान कहलाता है। रौद्र ध्यान : हिंसा, चोरी, असत्य, मैथुन, परिग्रह के लिये अति तीव्र इच्छा रौद्र ध्यान है।

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