Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 74
________________ २२ योगबिंदु अर्थ : लोक और शास्त्र से अविरुद्ध योग ही यथार्थ योग कहा जाता है। केवल श्रद्धामात्र से माना गया योग बुद्धिमानों को इष्ट नहीं है ॥२२॥ विवेचन : ग्रंथकार ने गतश्लोकों में "योगशब्द का अर्थ", "योग मार्ग का अवकाश", "आत्मा को सदसद्प मानकर", "कर्मादि की व्यवस्थापूर्वक" जो योग कहा है वही यथार्थ है। कुछ दार्शनिक पूर्वापर सम्बन्ध, कार्यकारणभाव की जाँच किये बिना ही "वेदवचनात् प्रवृत्तिः" न्याय को मानकर, योग का संभव सत्ता को मानते हैं । ग्रंथकार उन्हें कहते हैं कि लोक-सामान्य जनता में प्रचलित एवं संसार व्यवहार में उपयोगी परम्परा-प्रवृत्ति तथा शास्त्र के साथ भी जिसका विरोध न हो वही योग यथार्थ है, उसी में योग के लक्षण घटते हैं । अन्यथा एकान्त नित्य अथवा एकान्त अनित्य आत्मा को मानने से योग घटित नहीं होता है, क्योंकि नित्य मानने से उसमें अवस्थान्तर की प्रतिपत्ति-बाधा आती है । नित्य का लक्षण सर्वकाले एकरूप ही रहता है । आत्मा का नरत्व, नारीत्व, पशुत्व, संसारीत्व, मोक्षत्व यह जो अवस्थान्तर दिखाई देता है और शास्त्रों में भी जिसका विधान है उससे लोक और शास्त्र दोनों में विरोध आता है। एकान्त अनित्य मानने से भी आत्मा नाशवंत होने के कारण योग में विरोध आता है, अतः कथंचित् नित्यानीत्यस्वरूप को धारण करने वाली आत्मा द्रव्यार्थिकनय से नित्य और पर्यायार्थिक नय से नये-नये परिणाम और भवों को धारण करने के कारण अनित्य है, ऐसा अनुभव सभी लोगों को होता है। ऐसा लोकमान्य स्याद्वाद-न्यायमय सिद्धान्त जैनशास्त्रों में है। अतः ऐसा योग ही यथार्थ योग है और तभी सार्थक होता है। अन्य कपिलदेव तथा पतञ्जलि आदि महर्षियों ने वेद-वेदान्त के ऊपर केवल श्रद्धा रखकर, पूर्व-अपर सम्बन्ध घटित किये बिना, स्वदर्शनाभिनिवेश के कारण आत्मा-कर्मादि का स्वरूप ऐसा कहा गया है, ऐसा निश्चित होता है इसलिये इन महर्षियों का मत बाधित होने से निष्पक्षपात मध्यस्थ पण्डितों को इष्ट नहीं हो सकता क्योंकि "आत्माकर्म संयोगादि" की व्यवस्था को कष, छेद, तापरूप परीक्षा में शुद्ध करके, स्थिर श्रद्धा से उसे स्वीकार करना चाहिये, तभी योग सार्थक होता है ॥२२॥ २२वें श्लोक का आशय १. ग्रंथकार का आशय है कि योग सम्बन्धी विचार कभी दृष्ट में विरोध नहीं रखता तथा शास्त्र की दृष्टि में भी विरोध नहीं रखता । ऐसा ही योग विषयक विचार प्रस्तुत चर्चा का विषय हैं, परन्तु जो योग विषयक विचार किसी भी प्रकार की परीक्षा को सहन नहीं कर सकता अर्थात् उसकी परीक्षा करने पर संगति नहीं बैठती ऐसा योग सम्बन्धी विचार योगबिंदु में प्रस्तुत नहीं है। किसी प्रकार की तटस्थ परीक्षाओं को भी सहन नहीं करने वाले योग सम्बन्धी विचार मात्र श्रद्धागम्य ही हो सकता है, केवल श्रद्धागम्य ही योग का विचार बुद्धिमान लोग पसंद नहीं करते । तात्पर्य है कि योग सम्बन्धी विचार की विविध तर्क द्वारा परीक्षा की जा सकती है। ऐसे योग में पण्डित लोग रुचि रखते हैं, पसन्द करते हैं । एकान्त नित्य आत्मा को माना जाय तो योग उसके लिये

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