Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ योगबिंदु को वास्तविक, यथार्थ (आप्त पुरुषों द्वारा प्ररूपित) जानकर ही इस योगबिंदु ग्रंथ की रचना हो रही है। ये सब काल्पनिक नहीं, औपचारिक नहीं, कल्पना-कल्पित नहीं है अपितु यह सब वास्तविक हैं, यथार्थ है । अगर ये सब वास्तविक न हो तो योग याने आत्मा आदि का विचार ही नहीं हो सकता है। अतः यह मानना जरूरी है कि आत्मा आदि तत्त्व वास्तविक है। योग-मार्ग वास्तविक परमार्थ फल है। इसी कारण सब दार्शनिक अपनी अपनी परिभाषा में योगमार्ग सम्बन्धी तत्त्वों का विचार अपने-अपने शब्दों में इस प्रकार कर रहे हैं अर्थात् एक ही तत्त्व को अलग-अलग शब्दों में इस प्रकार सूचित कर रहे हैं ॥१६।। पुरुषः क्षेत्रविज्ञानमिति नाम यदात्मनः । अविद्या प्रकृतिः कर्म तदन्यस्य तु भेदतः ॥१७॥ अर्थ : पुरुष, क्षेत्रविद् (क्षेत्रज्ञ), ज्ञान, ये आत्मा के नाम है । अविद्या, प्रकृति और कर्म आत्मा से भिन्न जो कर्मपुद्गल हैं उनके नाम हैं ॥१७॥ विवेचन : जैन और वेदान्ती 'आत्मा' को 'पुरुष' कहते हैं । सांख्यमतावलम्बी 'आत्मा' को 'क्षेत्रविद्-क्षेत्रज्ञ' कहते हैं, 'पुरुष' भी कहते है । बौद्ध 'आत्मा' को 'ज्ञान' विज्ञान स्कन्ध कहते हैं । ये तीनों आत्मा के ही नाम हैं । दर्शन शास्त्रों में 'आत्मा' को भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया है । इसमें मात्र शब्द भेद है, पारमार्थिक भेद कुछ नहीं । इसी प्रकार आत्मा से अन्य जो कर्मपुद्गल आत्मा को संसार में भ्रमण करवाते हैं, उसे बौद्ध एवं वेदान्ती 'अविद्या' कहते हैं । सांख्यमतावलम्बी प्रकृति और जैन उसे कर्म कहते हैं । अविद्या कहो, प्रकृति कहो, कर्म कहो, माया कहो, ये सब संसार भ्रमण के कारण-हेतु कहे जाते हैं । कर्म के ही तीनों अलग-अलग नाम दिये हैं । वस्तुतत्त्व में कर्म के स्वभाव और योग्यता में कोई भेद नहीं पड़ता ॥ १७ ॥ भ्रान्ति-प्रवृत्ति-बन्धास्तु संयोगस्येति कीर्तितम् । शास्ता वन्द्योऽविकारी च तथा अनुग्राहकस्य तु ॥१८॥ अर्थ : संयोग को भ्रांति, प्रवृत्ति और बन्ध कहा है तथा अनुग्राहक को शास्ता, वन्द्य और अविकारी कहा गया है ॥१८॥ विवेचन : जीव के साथ कर्म का जो संयोग होता है उस संयोग का भी बोध भिन्न भिन्न दार्शनिकों ने अलग-अलग दिया है अर्थात् आत्मा के साथ जो अनादि संयोग है, जिससे आत्मा को बद्धदशा में रहना पड़ता है, उस कारण को. जैनदर्शन में 'बन्ध' कहते हैं । उसी बन्ध को वेदान्ती और बौद्ध 'भ्रांति' मानते हैं और सांख्यवादी उसे 'प्रवृत्ति' कहते हैं । उसी प्रकार अनुग्राहक-अनुग्रह करने वाले को जैन 'शास्ता', बौद्ध 'वंद्य' (वन्दनीय) और शैव-भागवत् दर्शन में उस पुरुष को

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108