Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 24
________________ प्रधान है, योग लौहचुंबक है, योग सर्व दुःखों का क्षय करने वाला है, योग से मन पवित्र बनता है, योग से संशय का विनाश होता है, योग साधना से दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है और उसके द्वारा साधक को इन्द्रियातीत (अतीन्द्रिय) आत्मा, कर्म, परलोक, मोक्ष आदि पदार्थों का सम्यक् बोध होता है। योग से आग्रह की निवृत्ति, द्वन्द्व सहन करने की शक्ति, द्वन्द्व का अभाव, शुभोदय करने वाली धृति, क्षमा, सदाचार, योगवृद्धि, आदेयता, गुरुत्व एवं अनुत्तर-परमशान्ति, सुख भी योग द्वारा ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार योग का माहात्म्य वर्णन करते हुए योग साधना के प्रति साधक को अधिक पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी है । जैनधर्म में पूर्वजन्म के ज्ञान को जातिस्मरण ज्ञान कहा गया है। जातिस्मरण से पूर्वजन्म, परलोक आदि की सिद्धि होती है एवं कर्मवाद की भी सिद्धि होती है । जातिस्मरण भी योग द्वारा संभवित है । इसके लिए आचार्यश्री ने कहा है कि ब्रह्मचर्य, तपश्चर्या, शास्त्राभ्यास, मंत्रसाधना, तीर्थयात्रा, माता-पिता की सेवा, औषध आदि का दान, जीर्णोद्धार आदि सत्कार्यों एवं योग से जातिस्मरण ज्ञान होता है । योग से तत्त्वसिद्धि भी होती है । इसका विस्तार से वर्णन इस ग्रंथ में किया है। मनुष्य जन्म पाकर तत्त्वसिद्धि करना ही लक्ष्य होना चाहिए, तत्त्वसिद्धि वाद-विवाद या तर्क से कदापि नहीं हो सकती है। आचार्यश्री के अनुसार तत्त्वसिद्धि केवल अध्यात्म से ही हो सकती है। अध्यात्म ही उपाय है और अध्यात्म योगांग है अतः उसके लिए ही प्रयास करना चाहिए । सत् उपाय से ही लक्ष्य की सिद्धि होती है असम्यक् उपाय से कभी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है अतः बुद्धिमान् पुरुष सम्यक् उपाय का आश्रय ले । वह उपाय अध्यात्मयोग ही है। पंच समवाय की सिद्धि : __ आचार्यश्री कहते हैं कि आत्मा के विभिन्न परिणामों से कर्मों का बन्ध होता है, उसके बाद कालानुसार सुख-दुखादि होता है यह सब स्वभाव बिना सिद्ध नहीं हो सकता है, अतः काल, स्वभाव, नियति, कर्म एवं पुरुषार्थ इन पाँच के समवाय से कार्य की सिद्धि होती है । चरमपुद्गल परावर्तकाल में ही अध्यात्म की सिद्धि : जीव अनादिकाल से इस संसार में जन्ममरण की परंपरा में फंसा हुआ है। यह चक्र निरन्तर चलता रहा है। इन भवों में प्राणी मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमादादि अशुभयोगों की तीव्रता से पापकर्मों में जकड़ा हुआ, ज्ञानरूपी लोचन से रहित, योग्य, अयोग्य, कृत्य-अकृत्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय आदि के विवेक से शून्य, सम्यक् ज्ञानरूपी आँखों से रहित संसार में भटकता रहता है। ऐसे दुर्गुणों से युक्त प्राणी को कृष्णपाक्षिक कहा है । आचार्य हरिभद्रसूरि इसी को भवाभिनन्दी की संज्ञा देते हुये कहते है कि भवाभिनन्दी प्राणियों में आहार, भय और परिग्रह संज्ञा तीव्रमात्रा में होती है और इसी कारण वे दुःखी होते हैं । कुछ लोक धर्मकार्य करते हैं तथापि लोकपंक्ति का आदर करते हैं अतः पुनः दुःख का ही अनुभव करते हैं । भवाभिनन्दी का लक्षण बताते हुए कहा है कि १४

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