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योगबिंदु अनुकूल अर्थक्रियाकारिता धर्म से युक्त है। ऐसा मानना आवश्यक है। यही बात ग्रंथकार – स्वरूपं "सर्वार्थेषु उचित प्रवृत्ति लक्षणम्" शब्द द्वारा सूचित कर रहे हैं और फल मोक्षरूप है इस प्रकार पाँचवें श्लोक में गोचर, स्वरूप और फल का विवेचन ग्रंथकार ने कर दिया है । यहाँ इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि वास्तविक पदार्थ के विचार में कही भी उपचार करने की जरूरत नहीं है । उपचार अर्थात् जो पदार्थ जैसा नहीं है, उसे वैसा मानना जैसे "माणवकः सिंहः" अर्थात् 'माणवक' नामक बालक सिंह है। यद्यपि बालक माणवक सिंह नहीं हो सकता परन्तु बोलने वाला माणवक में सिंहत्व का आरोप करके 'माणवकः सिंहः', ऐसी भाषा का भी प्रयोग करता है परन्तु यहाँ यथार्थ वास्तविक पदार्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में ऐसे कोई कल्पित उपचार की जरूरत ही नहीं है अर्थात् प्रस्तुत में योग शब्द "मोक्षण योजनात् योगः" जिस अनुष्ठान से प्रवृत्ति से या क्रिया से, कर्ता का मोक्ष के साथ सम्बन्ध हो उसी का नाम योग है, और यह 'योग' नाम अपने अर्थ के अनुसार ही उपयुक्त होता है । इससे प्रस्तुत में योग के अर्थ के लिये किसी प्रकार के उपचार की आवश्यकता नहीं है, यह ध्यान में रखना जरूरी है।
आशय यही है कि गोचर-आत्मा, उसका स्वरूप और उसका परिणाम तीनों का जहाँ परस्पर मेल हो, संवाद हो वही योग है, योग शब्द का मुख्यार्थ यही है। जिस योग में इन तीनों का परस्पर मेल न खाता हो वह वास्तविक योग नहीं ॥५॥
आत्मा तदन्यसंयोगात् संसारी तद्वियोगतः ।
स एव मुक्त एतौ च तत्स्वाभाव्यात्तयोस्तथा ॥६॥ अर्थ : आत्मा, आत्मा से अन्य कर्मवर्गणा रूप पुद्गल संयोग से संसारी कही जाती है और कर्मवर्गणा रूप पुद्गलों के वियोग से वही आत्मा मुक्त कहलाती है क्योंकि आत्मा का मुख्य स्वभाव मोक्ष ही है ॥६॥
विवेचन : जीव के दो प्रकार हैं - संसारी और मुक्त । जब तक आत्मा कर्मरूप पुद्गल के साथ संयुक्त है अर्थात् जब तक आत्मा के साथ कर्म का संयोग है वह संसारी है और जैसे अग्नि से तपा कर, स्वर्ण शुद्ध किया जाता है तब उसकी सर्व मलिनता नष्ट हो जाती है और कीमती देदीप्यमान स्वर्ण प्रकट होता है। उसी प्रकार सद्गुरु के योग से व उपदेश से कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप आस्रव को समाप्त करने के लिये सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना करके, कर्मों को खपा कर वही आत्मा मुक्त कहलाती है । मोक्ष प्राप्त करना जीवों का मूल स्वभाव है, किंतु जब तक आत्मा परम पुरुषार्थ नहीं करे तब तक आत्मा के मूल गुण का विकास नहीं होता । इस स्थिति में आत्मा को व्यवहार से द्रव्यात्मा-संसारी कहते हैं । स्वर्ण की भांति आत्मा और कर्म का परस्पर अनादि सम्बन्ध है । अध्यात्मयोगी श्रीआनंदघनजी ने छठे श्री पद्मप्रभ के स्तवन में यही कहा है :