Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 58
________________ योगबिंदु हो वही योग है, अर्थात् जहाँ आस्रव का त्याग हो, पंचयम रूप महाव्रत हो, पांच इन्द्रियों का रोध हो, अष्ट प्रवचनमाता का पालन हो, नवविध ब्रह्मचर्य का पालन हो, संवरभाव हो, चार कषायों का निग्रह हो वही मोक्ष का मुख्य कारण होता है । ऐसी धर्मप्रवृत्ति ही योग है और इसी में योग शब्द का जो मुख्यार्थ मोक्ष है घटित होता है । महर्षि पतञ्जलि ने भी योग का लक्षण बताया है कि "क्लिष्टचित्तवृत्तिनिरोधो योगः" अर्थात् विषम चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है। यह लक्षण योग में घटित होता है। ग्रंथकार का आशय यह है कि सर्वप्रथम गोचर याने योग का प्रधान विषय क्या है ? इसका विचार करना चाहिये, फिर स्वरूप सम्बन्धी करना क्रम प्राप्त है बाद में फल का पूर्वोक्त योगप्रक्रियानुसार आचरण से इष्ट फल किस प्रकार का प्राप्त होगा यह भी सोचना बहुत जरूरी है। ऐसा करने से "मोक्षेण योजनाद् योगः" अर्थात् मुक्ति की यानी रागद्वेष से मुक्ति पाने की क्रिया से योग हो । यहाँ ऐसे ही अनुष्ठान पसन्द करने चाहिये और फिर पसन्द किये हुए अनुष्ठानों में विवेक पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिये । यहाँ इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी हैं कि रागद्वेष को दूर करने वाले अनुष्ठानों में, कहीं किसी प्रकार से रागद्वेष को बढ़ाने वाले, केवल आडम्बर अनुष्ठान धार्मिक नाम से न घुस जाय । इन सब बातों का विचार जागृति पूर्वक करना जरूरी है । इसी हकीकत को पाँचवें श्लोक में ग्रंथकार ने इस प्रकार बताया है : सर्वप्रथम आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिजी ने यह बताया है कि योग का विषय परिणामी आत्मा मानना चाहिये; आत्मा रागद्वेष के परिणामों से मलिन है उसको शुद्ध करने के लिये आत्मा के मलिन परिणामों को सद्विचारों के सामर्थ्य द्वारा, विवेक के साथ, आन्तर और बाह्य सदनुष्ठानों का अर्थात् तप तथा भावना आदि का आश्रय लेने से तथा सतत् सद्विचारों के प्रवाह का आश्रय लेने से आत्मा धीरे-धीरे अपनी मूल स्थिति को पा लेगी। यह भी तब ही हो सकेगा जब आत्मा परिणमनशील हो परंतु अगर आत्मा को कूटस्थ नित्य मान लिया जाय तो वह कभी बदल ही नहीं सकती और जब बदल ही नहीं सकती तो मलिन परिणामी आत्मा फिर शुद्ध परिणामी कैसे हो सकती है ? इस युक्ति से विचार करके, योग के विषयरूप आत्मा परिणामी होनी चाहिये ऐसा मानना जरूरी है। जैसे कोई मलिन वस्त्र है उसे स्वच्छ शुद्ध बनाने के लिये वस्त्र को परिणामी-परिणमनशील होना जरूरी है यदि वस्त्र कूटस्थ नित्य हो तो वह कभी भी शुद्ध नहीं हो सकता, पर परिणामी हो तो उसका मलिन परिणाम दूर हो सकता है और वह स्वच्छ परिणाम को पा सकता है । इस युक्ति से योग के विषय रूप आत्मा परिणामी होनी चाहिये ऐसा मानना जरूरी है। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा परिणामी है, अर्थात् पर्यायों की अपेक्षा से आत्मा परिणामी है और मूल द्रव्य की अपेक्षा से, आत्मत्व की अपेक्षा से आत्मा ध्रुव है जैन परिभाषा की अपेक्षा से दीप से लेकर, आकाश तक के सारे पदार्थ, पर्यायों की अपेक्षा से परिणामी और द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, इस प्रकार योग के विषयरूप आत्मा को परिणामी मानकर ही आगे चलना होगा दूसरा विचार स्वरूप का करना जरूरी है । आत्मा का या सब पदार्थों का स्वरूप'उचित प्रवृत्ति करना है' अर्थात् अर्थक्रियाकारित्व सभी पदार्थों का स्वरूप है अतः आत्मा भी अपनी

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