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योगबिंदु
विवेचन : शुद्ध स्वर्ण और अशुद्ध स्वर्ण में जो स्वर्णत्व है वह स्वर्णत्व दोनों में समान होने पर भी यह शुद्ध स्वर्ण है; यह अशुद्ध स्वर्ण है - ऐसी भेद कल्पना करना, शाब्दिक कल्पना के सिवाय कुछ नहीं । इसी प्रकार आत्मतत्त्व तो सर्वत्र सभी आत्माओं में विद्यमान है फिर उसमें अमुक भाग को यह संसारी आत्मा है अमुक भाग को वह मुक्त आत्मा है - इस प्रकार की कल्पना करना भी मात्र शाब्दिक कल्पना के सिवाय कुछ नहीं है, अतः आत्मा एक ही है सर्वात्मवादी । अद्वैतवादी को कहीं भी भेद दिखाई नहीं देता क्योंकि आत्मा के सिवाय, अद्वैत मतानुसार, कर्म और माया को असत् माना है । आत्मा से अन्य कर्म का अभाव होने पर आत्मा का संसार और मुक्ति सिद्ध नहीं होती। अत: निःसन्देह मात्र आत्मा का ही अस्तित्व स्वीकारना पड़ेगा । यह सिद्धान्तबद्ध
और मुक्त विचार के साथ भी युक्तियुक्त घटित नहीं होता है । जब आत्मा के अभेद का सिद्धान्त त्रुटित हो जाता है तब इस सम्बन्ध में किस तरह की व्यवस्था की जाय जिससे बन्ध और मुक्ति के विचार संगत हो सके ? पूर्वोक्त छठे पद्य में कहा गया है कि "आत्मा, आत्मा से भिन्न कर्म, पुद्गल के संयोग से संसारी बनता है और कर्मपुद्गलों के वियोग से वही आत्मा मुक्त हो जाती है - सदेह मुक्त विदेहमुक्त बनता है ।।९।।
यहाँ प्रश्न हो सकता है कि कर्मपुद्गलों के साथ आत्मा का संयोग किस तरह हो सकता है ? जब तक संयोग होने की योग्यता न होगी तब तक किसी भी वस्तु-पदार्थ का व पुद्गल परमाणु का परस्पर संयोग नहीं हो सकता । इसी बात को ग्रंथकार दसवें श्लोक में दर्शा रहे हैं :
योग्यतामन्तरेणास्य संयोगोऽपि न युज्यते ।
सा च तत्तत्त्वमित्येवं तत्संयोगोऽप्यनादिमान् ॥१०॥ अर्थ : बिना योग्यता (अर्थात् कर्मसंयोग के अनुकूल परिणति) के आत्मा का कर्म के साथ संयोग-सम्बन्ध भी घटता नहीं । वह योग्यता तत्त्व ही, आत्मा का अनादि स्वभाव है, इसलिये योग्यता (कर्मसंयोग के अनुकूल परिणति) और कर्म-संयोग दोनों अनादि हैं । अथवा
__ आत्मा का कर्म के साथ संयोग सम्बन्ध जीव की योग्यता के बिना संभव नहीं इसलिये आत्मा की कर्म-सम्बन्ध की जो योग्यता है वही उसका अनादि स्वभाव है इस कारण कर्म का आत्मा के साथ जो संयोग सम्बन्ध है उसे भी अनादि कालीन समझना चाहिये ॥१०॥
विवेचन : जीव से अन्य कर्म क्रियारूप होने से कर्ता की अपेक्षा रखता है और कर्ता कर्म से भी पहले होना चाहिये क्योंकि दोनों का युगपत् जन्म मानने से "सन्येतर गोविषात" की भांति इसका कार्य-कारण भाव नहीं घटता । कार्य-कारण, बिना स्वरूप में स्थित ऐसे शुद्ध जीव को सर्वप्रथम कर्मसंयोग कैसे हुआ ? जिससे वह संसारी बना । इसी को स्पष्ट करने के लिये कहा है