Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 65
________________ योगबिंदु १३ जिस प्रकार प्रकृति और पुरुष का संयोग सम्बन्ध अनादि काल का है, वासना तथा जीव का सम्बन्ध अनादि है और ब्रह्म के साथ माया का संयोग सम्बन्ध अनादिमान है इसी प्रकार आत्मा और कर्म परमाणु का संयोग अनादिमान है। इस सम्बन्ध को आदिमान मानने से और वासना व माया के संयोग को आदिमान मानने से अनेक प्रकार की आपत्तियां खड़ी हो जाती हैं । इस कारण छैनदर्शन, बौद्धदर्शन, सांख्यदर्शन, वेदान्त दर्शन आदि सभी दर्शनों के विचार से, पूर्वोक्त संयोग अनादिमान माना जाता है ||१०|| योग्यतायास्तथात्वेन विरोधोऽस्यान्यथा पुनः । अतीतकालसाधर्म्यात् किन्त्वाज्ञातोऽयमीदृशः ॥११॥ अर्थ : 'योग्यता' से जीव तथा कर्मपुद्गलों का संयोग होता है इसलिये 'योग्यता' को अगर 'अनादिकालीन' न माने तो विरोध आता है (अतः) जैसे काल 'प्रवाहरूप' से 'अनादि' है इसी प्रकार 'बन्ध' भी वैसा ही हैं, दोनों का साधर्म्य है। इसे शास्त्राज्ञा से मानना चाहिये ॥११॥ विवेचन : योग्यता-"कर्मसंयोगानुकूल परिणति" आत्मा का जो 'स्वभाव' है वह 'अनादि' माना है । जीव इस योग्यता के कारण जो 'कर्मबन्ध' करता है वह 'बन्ध' भी 'अनादि-सांत' माना है। अगर कर्मबन्ध को 'अनादि सांत' न माने अर्थात् अगर ऐसा माने कि पहले आत्मा कमलपत्रवत् निर्लेप था, बाद में कर्म संयोग हुआ तो विरोध यह आता है कि मुक्तात्मा, सिद्धात्मा जो शुद्ध हो चुका है, उन्हें भी कर्मबन्ध प्रारंभ हो जायगा । इसलिये योग्यता और कर्मबन्ध दोनों अनादि ही मानने चाहिये, लेकिन अनादित्व कैसा है ? 'काल' का दृष्टान्त देकर बताया है कि - काल, भूत, भविष्य, वर्तमान भेद से आदि वाला होने पर भी प्रवाहरूप से अनादि माना जाता है, उसी प्रकार आत्मा का कर्म के साथ संयोग समय-समय पर होने पर-आदिमान होने पर भी प्रवाहरूप से अनादि ही माना जाता है । आगमों में भी जिनेश्वर प्रभु ने कर्मबन्ध को अनादि बताया है । अन्य सभी दर्शनकारों ने भी इसको अनादि ही माना है । पूर्वोक्त योग्यता का विचार अर्थात् जीव के साथ जो कर्म के अणुओं का सम्बन्ध हो गया है यह जीव की अनादि कालीन योग्यता ही है । जीव के साथ उक्त सम्बन्ध अनादिकाल से चला आता है । इस विचार को सभी दार्शनिकों ने स्वीकृत किया है । यदि योग्यता को आदिमान माना जाय तो बन्ध को भी आदिमान मानना होगा । ऐसा मानने से यह भी फलित हो जाता है कि पहले जीव शुद्ध था । बाद में उसके साथ कर्म के परमाणु का सम्बन्ध बना । इस विचार को मानने से मुक्त आत्माएँ जो शुद्ध हो गई हैं, उसके साथ भी कर्मअणुओं का बन्ध क्यों नहीं होता ? परन्तु काषायिक भावों के बिना तो किसी भी जीव के साथ कर्म के अणुओं का बन्ध नहीं हो सकता, यह 'सिद्धान्त' सभी को स्वीकृत है । अतः पहले जीव शुद्ध था और बाद में कर्म पुगलों का उसके

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