Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 62
________________ योगबिंदु मुख्य नहीं । जगत की विचित्रता जो दिखाई देती है वह विविध कर्मों का ही फल है । हम जो ईश्वर की कृपा कहते हैं, वह ईश्वर में हमारी भक्ति की अधिकता का सूचक होने से हमारी नम्रता का प्रकटीकरण होने से औपचारिक कथन मात्र है जैसे व्यवहार में विद्यार्थी कहता है कि आज मैं जो कुछ भी हूँ उसमें मेरे अध्यापक का संपूर्ण श्रेय है । यह व्यवहारिक भाषा में कथन है । उपादान, मुख्य कारण नहीं हो सकता मुख्य कारण तो अपनी स्वभाव की योग्यता ही होती है ॥७॥ केवलस्यात्मनो न्यायात् सदाऽऽत्मत्वाविशेषतः । संसारी मुक्त इत्येतद् द्वितयं कल्पनैव हि ॥८॥ अर्थ : केवल आत्मा है, आत्मा के सिवाय अन्य कुछ नहीं ऐसा न्याय मानने से जीव के दो भेद संसारी और मुक्त की अद्वैत भाव कल्पना मात्र ही रहेगें ॥८॥ विवेचन : यहाँ हरिभद्रसूरि अद्वैतवाद पर आक्षेप करते हैं । "बह्मसत्यं जगन्मिथ्या" एक आत्मा ही सत्-विद्यमान है, उसके सिवाय अन्य कर्म, शरीर, इन्द्रिय, मन, राजा, प्रजा, सेठ, नौकर, पुरुष-स्त्री, माता-पिता, शत्रु-मित्र, नगर, पर्वत आदि सभी असत् मिथ्या है ऐसा मानने से संसार का जो व्यवहार चलता है सब ही नष्ट हो जाता है । "सर्वं खलु इदं ब्रह्मनेह नास्ति कदाचन" अलग-अलग घर, दुकान, राजा, प्रजा, इत्यादि जो दिखाई देता है वह सब एक ब्रह्म ही है, ऐसा एकान्त ब्रह्म-आत्मा को स्वीकार करके, अन्य वस्तु का निषेध करने से आत्मा को सुख-दुःख देने वाले कारणभूत कर्म-सम्बन्ध को भी नहीं मान सकते । “परं ब्रह्म अपर-ब्रह्म" रूप, आप जीव के संसारी और मुक्त ऐसे जो दो भेद मानते हैं आपकी यह मान्यता भी असत्य सिद्ध होती है । अगर एक आत्मा ही है, तो देवगुरु की पूजा, संयम, इन्द्रियनिग्रह, ब्रह्मचर्य, दया, व्रत आदि नियमों की, किसी की भी जरूरत नहीं रहती । कारण ब्रह्म की सत्ता सिवाय किसी की भी सत्ता का अस्वीकार है, अतः "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" की कल्पना से आप के ही सिद्धान्त का अपलाप है, यह तो आप की कल्पना है वास्तविक नहीं । ग्रंथकर्ता कहना चाहते हैं कि एकान्तदृष्टि, एकान्तवाद हानिकर्ता है और अनुपयुक्त सिद्ध होता है। आपके सिद्धान्त को अगर एकान्तवाद से कोई समझने का प्रयत्न करेगा तो विरोधाभास आयेगा, अपलाप होगा, परन्तु अनेकान्तदृष्टि से सभी का समन्वय हो सकता है ॥८॥ काञ्चनत्वाविशेषेऽपि यथा सत्काञ्चनस्य न । शुद्ध्यशुद्धी ऋते शब्दात् तद्वदत्राप्यसंशयम् ॥९॥ अर्थ : शुद्ध की हुई स्वर्ण धातु व प्राकृतिक स्वर्ण रज (जिसकी अभी शुद्धि होनी शेष है ) में स्वर्णत्व समान होने पर भी यह शुद्ध स्वर्ण है वे यह अशुद्ध स्वर्ण है ऐसा जो भेद दिखाई देता है वह शाब्दिक मात्र है, वैसा ही यहाँ आत्मा के संबंध में भी जानना चाहिये ॥९॥

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