Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 53
________________ आचार्य हरिभद्रसूरि प्रणीतः योगबिन्दुः नत्वाऽऽद्यन्तविनिर्मुक्तं शिवं योगीन्द्रवन्दितम् । योगबिन्दुं प्रवक्ष्यामि तत्त्वसिद्ध्यै महोदयम् ॥१॥ सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः । सन्नीत्या स्थापकं चैव माध्यस्थांस्तद्विदः प्रति ॥२॥ अर्थ : आत्मा की अपेक्षा से आदि और अन्त से रहित, योगीन्द्रों से अर्थात् बड़े-बड़े योगियों से वंदित, शिव-कल्याणरूप परमात्मा को नमस्कार करके, मध्यस्थ योगवेत्ताओं के लिये महोदय अर्थात् मोक्ष को देने वाले सभी योगशास्त्रों में पारमार्थिक अविरोध को सन्नीति से स्थापन करने वाले "योगबिंदु" को तत्त्वों की सिद्धि के लिये कहूंगा ॥१-२ ॥ विवेचन : ग्रंथकार ने यहाँ “नत्वा आद्यन्तविनिर्मुक्तं शिवं” पद से सभी धर्मों और दर्शनकारों को आदरणीय बने ऐसा मंगल किया है। "योगीन्द्रवन्दितम् " विशेषण से पूजातिशय प्रकट है और ज्ञानातिशय, अपायापगम अतिशय और वचनातिशय सामर्थ्यगम्य है । "तत्त्वसिद्ध्यै" पद से प्रयोजन बताया है, जिससे सत्यतत्त्व के मुमुक्षु जिज्ञासु इस ग्रंथ को पढ़ने के लिये प्रवृत्ति करें । “सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन" पद से सभी योगशास्त्रों का इस ग्रंथ में समन्वय सूचित है ताकि किसी भी दर्शन को मानने वाला निःसन्देह इस ग्रंथ का अध्ययन कर सके। ग्रंथ में मोक्ष सम्बन्धी विवेचन होने से यह सज्जनों के लिये आदरणीय है। इस ग्रंथ के शब्द - समूह को पढ़ने वाला व सुनने वाला श्रोता आत्मज्ञान प्राप्त करता है, अतः ग्रंथ के अभिधेय के साथ ग्रंथ का वाच्य वाचक सम्बन्ध भी स्पष्ट है । ग्रंथकर्ता को ग्रंथ रचना से निर्जरा होती है, यह साक्षात् फल है और परम्परा से मोक्षप्राप्ति रूप फल भी मिलता है । " सन्नीत्या" पद से सभी विषमताओं और विरोधों को दूर करने वाले जैनधर्म के लोकप्रिय सिद्धान्त अनेकान्त - स्याद्वाद का निर्देश है। "तत्त्वतः " पद से तात्पर्य है यथार्थ सत्यबोध से, जो ऊहापोह पूर्वक पर्यालोचन से प्राप्त किया जाता है । "मध्यस्थांस्तद्विदः"

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