Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 55
________________ योगबिंदु व धर्माचरण का लक्ष्य मानते हैं, उनके विचार से उन सभी का लक्ष्य-साध्य एक निर्वाण ही है। इसमें सभी “निर्वाणवादी' धर्म सम्प्रदायों का समावेश हो जाता है। इसी विचार को दर्शाते हुये ग्रंथकार ने तीसरे श्लोक में यह स्पष्ट किया है कि योग मोक्षलाभ का हेतु है, अतः निर्वाणवादीमोक्षवादी सभी धर्मसम्प्रदायों का साध्य मोक्ष ही है । इससे यह फलित हुआ कि निर्वाणवादी सभी सम्प्रदाय योग के सम्बन्ध में, इस विचार से सहमत है कि योग मोक्ष का हेतु है। सभी धर्मानुयायी मोक्ष को साध्य मानते हैं और योग को मोक्ष का साधन मानते हैं । इस विचार के समर्थन में भिन्नभिन्न मार्गानुयायिओं ने अलग-अलग शैली का एवं अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया है वह प्रयोग कभी भी साध्य का बाधक नहीं हो सकता, जैसे-इस थैली में बीस रुपया है, ऐसा कहने के लिये १. कोई मनुष्य कहता है कि इस थैली में दस की युगल संख्या-समान रुपये हैं, २. कोई कहता है कि पांच की चतुर्गुण संख्या समान रुपये इस थैली में है, ३. कोई कहता है कि चार की पंचगुण संख्या समान संख्या वाले इस थैली में नगद रुपये हैं, ४. कोई कहता है कि अढ़ी गुणा आठ संख्या के समान, इस थैली में रुपये हैं, ५. कोई कहता है कि सवागुणी सोलह संख्या के समान प्रस्तुत थैली में रुपये हैं । "थैली में २० रु. हैं", इतना कहने के लिये, पूर्वोक्त पांच शैलियों से वाक्य प्रयोग हो सकता है, किंतु पांचों वाक्य प्रयोगों का आशय एक ही है। उक्त पांच शैलियों के प्रयोग करने वाले, बीस संख्या को ही सूचित करते हैं अर्थात् 'बीस' कहने के लिये उक्त पांच शैलियों का प्रयोग होने पर भी, उन पांचों को 'बीस' सूचित करना ही अभीष्ट है । ऐसे ही "रागद्वेष के समूल क्षय से वीतराग दशा व मुक्तिलाभ होता है" इसी एक बात को समझाने के लिये कोई कहता है - सब घाती कर्मों का क्षय होना चाहिये; आत्मा प्रकृति से एकदम अलग हो जाना चाहिये; वासना के क्षय से ही निर्वाणलाभ होगा; सत्त्व, रज, तम रूप विशेष गुणों के जड़मूल से नष्ट होने पर ही आत्मा अपने निर्मल स्वरूप में आ जायेगी, इसी प्रकार ऐसे अन्य भी उक्ति भेद से भिन्नभिन्न वाक्य प्रयोग किये जा सकते हैं । परन्तु इन उक्ति भेदों से मूल साध्य में लेशमात्र भी भिन्नता नहीं आ सकती । यही बात ग्रंथकार ने "उक्तिभेदो न कारणम्" इस वाक्य से सूचित किया है अर्थात् शब्दभेद से साध्य में कभी भी अन्तर नहीं हो सकता परन्तु जो अज्ञान, मूढ और भौतिक स्वार्थपरायण लोग हैं, चाहे वे पण्डित हों, साधारण जन हों, या महामहोपाध्याय हों, अपनी महामूढता के कारण शब्दों के भेद को सुनकर, स्वयं धर्माचरणहीन बन जाते हैं और अन्यों को भी धर्माचरण से हीन बना देते हैं । यही मायाजाल का प्राबल्य है ॥३॥ मोक्षहेतुत्वमेवास्य किन्तु यत्नेन धीधनैः । सगोचरादिसंशुद्धं मृग्यं स्वहितकांक्षिभिः ॥४॥ अर्थ : योग को मोक्ष का हेतु कहा है, किंतु आत्महित चिंतक बुद्धिमानों को, सद्गोचरादि अर्थात् सत्विषयादि की अपेक्षा से, विशुद्धयोग की शुद्धि की परीक्षा स्वयं प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिये ॥४॥

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