Book Title: Prachin Stavanavli 23 Parshwanath
Author(s): Hasmukhbhai Chudgar
Publisher: Hasmukhbhai Chudgar

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Page 35
________________ आचार्य हरिभद्रसूरि ने जैनयोग विषयक अनेक ग्रंथ रचे हैं । योगविंशिका, योगशतक, योगदृष्टिसमुच्चय एवं योगबिन्दु प्रमुख हैं । षोडषक एवं पंचाशक में भी योग की चर्चा प्राप्त होती है। जैनदर्शन में मोक्ष के साथ जोड़ने वाली सभी क्रिया को योग कहा है। मैंने अनुवाद करते हुए अनेक बार यही अनुभव किया हैं कि जैन साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं की सभी धर्मक्रियाओं में योग समाविष्ट है। योग भारतीय संस्कृति की अद्भुत खोज है । यह विश्व को भारत देश की अनुपम भेंट है। प. पू. याकिनी महत्तरा साध्वीजी महाराज की हम भूरि भूरि अनुमोदना करते हैं जिनकी पावन प्रेरणा से प. पू. हरिभद्रसूरिजी महाराज ने १४४४ ग्रंथ लिखकर श्रीसंघ पर परम उपकार किया। मुझे अनुवाद के कार्य में सबसे बड़ा सहारा आचार्य योगनिष्ठ बुद्धिसागरसूरिजी म.सा. एवं आचार्य ऋद्धिसागरसूरिजी म.सा. द्वारा गुजराती भाषा में किये गये विवेचन का मिला इसलिए हम उनके खूब खूब आभारी हैं । उनको नत मस्तक वन्दन करते हैं । इलाहाबाद की साहित्यरत्न परीक्षा के कारण हिन्दी भाषा सरल एवं सहज थी। चातुर्मास पूर्ण होते ही मेरा कार्य भी संपन्न हो गया। पू. आत्मारामजी महाराज की जन्मभूमि लहरा तीर्थ का उद्धार, कांगड़ा तीर्थ का उद्धार, चंडीगढ़ में जिनालय निर्माण, अंबाला में जैन कॉलेज का उद्धार, लुधियाना में मालेरकोटला आदि स्थानों के शासन कार्यो में तथा विजयवल्लभस्मारक-शिलान्यास आदि कार्यों में पू. मृगावतीश्रीजी महाराज की व्यस्तता रही । इस बीच हमारे परमोपकारी गुरु मृगावतीश्रीजी महाराज का स्वर्गवास हो गया, इससे आठ मास पूर्व पू. सुज्येष्ठाश्रीजी महाराज का स्वर्गवास हो गया । यह हम सभी के लिए अत्यन्त असहनीय वज्राघात था किन्तु मन को मजबूत करके पू. गुरु महाराज मृगावतीश्रीजी के प्रारम्भ किये हुए विजयवल्लस्मारक के कार्यों में समय लगाया, जैनभारती मृगावती विद्यालय का निर्माण एवं उद्घाटन करवाकर पंजाब, जीरा, हिमाचल-कांगड़ा, जम्मू आदि विचरे। पू. गुरुदेव इन्द्रदिन सूरीश्वरजी महाराज की आज्ञा से पू. मृगावतीश्रीजी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवा कर उत्तरप्रदेश, बिहार, समेत शिखर की यात्रा, कल्याणक भूमियों की यात्रा, बंगाल, उडीसा, आन्ध्रप्रदेश आदि में विचरे। विजयवल्लभ स्मारक, दिल्ली से हम लोग गुजरात की ओर विचरण करने निकले । गुजरात में सन् २००७ का हमारा चातुर्मास अहमदाबाद के विश्वविख्यात संशोधन संस्थान एल. डी. इन्स्टीट्यूट ऑफ इन्डोलॉजी में रहा । यहाँ हमारा अध्ययन एवं स्वाध्याय चलता रहा । संस्थान के निर्देशक प्रो. श्री जितेन्द्रभाई शाह से अलग-अलग विषयों पर चर्चायें होती रही। हमने हमारे अध्ययन काल को पुनः जागृत होते देखा। एक बार जितेन्द्रभाई शाह ने योगबिन्दु अनुवाद का विषय छेड़ा और कहा पंडितजी के पास पढ़ता था तब आपको योगबिन्दु के कुछ श्लोकों का अनुवाद भेजा था।

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