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एकवीसमो संधि गया अनमाँगे प्राप्त हुआ भोजन खाया जाता है। जहाँ चन्द्रकान्तमणियोंके निझरोसे जल पिया जाता है, और बिछी हुई पुष्पसेजोंपर सोया जाता है। जहाँ नूपुरोंसे झंकृत पैरों और अर्चनमें पुष्पोंके स्खलनोंसे रमण किया जाता है । जहाँ प्रासादके शिखरोंपर चन्द्रका उपहास किया जाता है। इसीसे यह कृश और टेड़ा किया जाता है। उसमें शुभमति नामका राजा था को मान लोकमान्य का। उस धुश्री नामकी सुन्दर महादेवी थीं, ऐरावतके समान हाथोंषाली और कुम्भस्तलके समान स्तनोंवाली। उससे द्रोण पुत्र उत्पन्न हुआ और कन्या कैकेयी, उसका क्या वर्णन किया जाये ? समस्त कला-समूहसे परिपूर्ण वह मानो प्रत्यक्ष लक्ष्मी अवतीर्ण हुई थी। उसके स्वयंवरमें हरिवाहन, मेघप्रभ प्रमुख पर इकट्ठे हुए जैसे समुद्रकी महाश्रीके सम्मुख नदियों के प्रवाह स्थित हुए हों ।।१-१०॥
[३] वह हधिनीपर आरूढ़ होकर निकली मानो प्रत्यक्ष महालक्ष्मी देवता हो । नरवर समूह और विद्याधर-मनुष्य राजाओंके देखते-देखते उसने दशरथ नामक राजापर इस प्रकार माला डाल दी, मानो सुन्दरगतिवाली रतिके द्वारा कामदेवपर माला डाल दी गयी हो । उस अवसर हरिवाहन विरुद्ध हो उठा। पकड़ो कहकर, सेना सहित वह दौड़ा। वरको मार डालो, कन्याको छीन लो, उसी प्रकार जिस प्रकार राजासे रत्न छीन लिये जाते है । तब रघुसुत दशरथने शुभमतिसे कहा"हे ससुर, आप धैर्य धारण करें। कौन आक्रमण कर सकता है अनवण्णके पुत्र मेरे जीवित रहते हुए ?" यह कहकर वह रथपर बैठ गया ! कैकेयीको धुरीपर सारथि बनाकर वह वहाँ पहुँचा जहाँ समस्त महारथी थे | तब दशरथने कहा-“जहाँ रविकिरणोंको दूरसे निवारण करनेवाले ध्वज और छन्त्र निरन्तर रूपसे है, हे प्रिये, तुम रथ वहाँ ले चलो" ॥१-२॥