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इसिभासियाइं के कुछ अध्ययनों का भाषाशास्त्रीय विश्लेषण
दीनानाथ शर्मा
शुब्रिग महोदय द्वारा सम्पादित इसिभासियाइं सूत्र की भाषा का अध्ययन इस लेख का प्रस्तुत विषय है। इस सूत्र की गणना जैन आगम साहित्य के प्राचीन चार ग्रन्थों आचाराङ्ग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक के साथ की जाती है, अतः यह ग्रन्थ एक प्राचीन कृति माना जाता है। आचारांग इत्यादि के उपलब्ध संस्करणों की भाषा के स्वरूप के साथ यदि इस ग्रंथ की भाषा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि इस ग्रथ का प्राकृत शब्दावली में वर्ण-योजना प्राचीन हैं जबकि अन्य प्राचीन ग्रन्थो में वणं-योजना अर्वाचीन है। इस ग्रन्थ में विभक्तियाँ एवं प्रत्यय कुछ सीमा तक अवान्तर काल के उपलब्ध होते हैं, जबकि अन्य प्राचीन आगम ग्रन्थों में प्राचीन काल के मिलते हैं। जिस किसी ऋषि या मुनि ने इसिभासियाई के सूत्रों का संग्रह किया होगा वह भगवान् महावीर के बाद का ही होगा, इसके अधिकांश अध्ययनों में जो उपोद्घात वाक्य आते हैं वे इस प्रकार हैं :
"अरहता इसिणा बुइतं" ( ४२ बार अरहता,३७ बार बुइतं और ६ बार बुइयं ) जबकि आचाराङ्ग के प्रथम सूत्र का उपोद्घात वाक्य इस प्रकार है :"सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं"
इन दोनों वाक्यों में कितना भाषाकीय अन्तर दृष्टिगोचर होता है। प्राकृत भाषाओं के ऐतिहासिक विकास की दृष्टि से इसिभासियाइं का वाक्य प्राचीन रूप लिए हुए है जबकि आचारांग का वाक्य अर्वाचीन रूप लिये हुए है। ऐसा क्यों ?
__ क्या आचारांग के प्रथम श्रुत्रतस्कन्ध की रचना इसिभासियाई के बाद में हुई ? अब हम इसिभासियाइं के कुछ अध्ययनों का भाषाकीय विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं :
मध्यवर्ती व्यञ्जनों में ध्वनि परिवर्तन पाव गोशालक
वर्धमान अध्याय ३१
११ यथावत् ६२%
४५% घोष ७%
२०% लोप ३१% २७%
३५% इन तीनों अध्ययनों में वर्धमान के अध्ययन में लोप सबसे अधिक और यथावत् स्थिति सबसे कम है।
३%
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