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आचार्य कुरंदकुद की आत्मदृष्टि : एक चिंतन
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ज्ञान, चारित्र की युगपत् प्राप्ति को मोक्ष मार्ग मानते हैं । वे यह सब वर्णन करते तो हैं परन्तु इससे हमें यह ज्ञात होता है उन्हें आत्मा के वास्तविक स्वरूप की ओर जीव को उन्मुख करना ही इष्ट है । आत्म-स्वरूप वर्णन प्रमुख और शेष वर्णन या विवेचन गौण है । उनकी रचनाओं का हम अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उनका एकमात्र उद्देश्य आत्मलाभ ही है । आत्म स्वरूप विवेचन एवं उसके भेद-प्रभेद के वर्गीकरण के माध्यम से आत्म निरूपण ही उनका प्रमुख उद्देश्य रहा है । आत्मा को जो जानता है वह सब जानता है । यही उनकी दृष्टि रही होगी । आचार्य ने षड्द्रव्यों को प्रथमतः बहुप्रदेशी एवं एकप्रदेशी अस्तित्व वाले द्रव्यों में वर्गीकृत किया है । काल द्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्य बहुप्रदेशी हैं । समस्त लोक का निर्माण पंचास्तिकाय से होने के कारण आचार्य इन्हें "समय" भी कहते हैं उन्होंने पंचास्तिकाय का समापन करते हुए पंचास्तिकाय संग्रह को 'प्रवचनसार' कहा है । इसके प्रति सम्यक् श्रद्धान से आत्मज्ञान हो सकता है । यही विशुद्ध ज्ञान आत्मज्ञान है । समय या आत्मा ही लोक में सारभूत है
आचार्य कुंदकुंद ने अपने समस्त कृतियों में आत्मा का प्रतिपादन प्रधान रूप से किया है । वही एकमात्र जानने योग्य है । उन्होंने यही कहा है कि जो एक आत्म तत्त्व को जानता है वह विश्व तत्त्वों की समस्त पर्यायों को जानता है । जो इसी एक आत्मा को नहीं जानता वह और किसी को भी नहीं जानता ।
आचार्य कुंदकुंद ने अपनी कृतियों में आत्मप्रतिपादन निश्चय और व्यवहारनय से किया है । उन्होंने बड़ी कुशलता से व्यवहार और निश्चय का प्रतिपादन करते हुए आत्मतत्त्व का निरूपण किया है और अन्त यही कहा है कि आत्मा उपादेय है और शेष य है । सद् द्रव्य ध्रुव है, असत् का कभी भी उत्पात नहीं होता । इसी कारण उन्होंने नियम को माना है । अतीत, अनागत एवं वर्तमान पर्याय हैं, वे सब ज्ञेय हैं, इसे आत्मा जाता है । ये सब सर्वज्ञ के ज्ञान का विषय है । ज्ञान और द्रष्टा रहना यह ज्ञाता आत्मा का परम लक्ष्य है। उन्होंने केवली को ज्ञाता द्रष्टा कहा है वे अपने निजस्वरूप अर्थात् अपने आत्मतत्त्व को जानते हैं । अन्य पदार्थों के वे ज्ञाता हैं, लेकिन यह व्यवहार कथन मात्र है । वास्तव में केवल आत्मज्ञ है, सर्वज्ञ है । आत्मा ही उपादेय है । यही आत्मतत्त्व स्वरूपनिरूपण में वे मानते आए हैं । आचार्य कुंदकुंद ने आत्म-ज्ञान को परमज्ञान माना है ।
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१. पंचास्तिकाय : गा० १७३. २. नियमसार : गा० १५८.
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अर्धमागधी विभागाध्यक्ष बालचन्द कला व विज्ञान महाविद्यालय सोलापुर-२
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