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जैन एवं काष्टीय दर्शनों की समन्वयवादी पद्धतियाँ
पुनः काण्ट ने अनुभववाद पर आक्षेप किया
(क) इन्द्रियानुभव में जो कुछ प्राप्त होते हैं वे संवेदन क्षणिक होते हैं, साथ ही अव्यवस्थित भी होते हैं । अतः उनसे कोई निश्चित ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती । बल्कि उन्हें ज्ञान की कोटि में लाना भी उचित नहीं लगता ।
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(ख) इन्द्रियानुभव यानी संवेदनों से तो ईश्वर और आत्मा जैसे अतीन्द्रिय तत्त्वों की जानकारी करना तो दूर है, उनसे बाह्य जगत् की सत्ता भी प्रमाणित नहीं हो सकती है।
(ग) न तो इन्द्रियानुभव से कार्य कारण जैसे सार्वभौम नियम बन सकते हैं और न इससे सन्देहवाद की स्थापना ही हो सकती है ।
इस तरह अनुभववाद सिर्फ अनुभव को अपना आधार मानकर आत्मघाती बन गया है ।
बुद्धिवाद और अनुभववाद को काण्ट ने एकांगी रूपों में पाया, किन्तु उन दोनों की कुछ मान्यताएँ उन्हें सत्य जान पड़ी । बुद्धिवाद ने यह प्रतिपादित किया है कि ज्ञान में जो सार्वभौमता, निश्चितता, असंदिग्धता एवं अनिवार्यता होती है उन्हें बुद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, बिल्कुल ठीक है । अनुभववाद की यह धारणा कि कोई ज्ञान यथार्थं तभी हो सकता है जब उसकी सामग्री संवेदनों के माध्यम से प्राप्त हुई हो, सर्वथा उचित है । जब काण्ट को यह ज्ञात हुआ कि बुद्धिवाद और अनुभववाद पूर्ण रूप में गलत तो नहीं है बल्कि आंशिक रूप में सही है तब उन्होंने दोनों के सही अंशों को समन्वित करने का प्रयास किया । उन्होंने यह बताया कि किसी भी चीज की उत्पत्ति के लिए ये दो तत्त्व अनिवार्य होते हैं- स्वरूप ( Form ) तथा सामग्री ( Matter ) । उदाहरण स्वरूप हमारे सामने जो कुर्सी है, जिसमें चौड़ाई तथा ऊँचाई हैं - जिनसे उसका स्वरूप जाना जाता है और कुर्सी लकड़ी अथवा लोहे की बनी है यह उसका द्रव्य या उसकी सामग्री है । इसी तरह ज्ञान में भी स्वरूप होता है और सामग्री होती है। ज्ञान की सामग्री अनुभव से प्राप्त होती है तथा स्वरूप बुद्धि । संवेदन से जो कुछ व्यक्ति पाता है, मात्र वे ही ज्ञान नहीं होते, जबतक कि वे बुद्धि के ढाँचे में ढल नहीं जाते । ज्ञान के लिए बुद्धि तथा अनुभव दोनों ही अपेक्षित है । अतः काण्ट ने अपने समन्वयवाद की प्रतिष्ठा करते हुए कहा --
"इन्द्रिय संवेदनों के बिना बुद्धि विकल्प पंगु या शून्य है और बुद्धि विकल्पों के बिना इन्द्रिय संवेदन अंध है ' ।
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इस प्रकार जैन एवं काण्ट दोनों ने अपने-अपने देश एवं काल के अनुसार वैचारिक जगत् के मतभेदों को मिटाने का प्रयास किया है । वैचारिक सामंजस्यता हो जाने पर व्यावहारिक सद्भाव का समाज में विकास होना बहुत हदतक संभव होता है । इसलिए हम कह सकते हैं कि समन्वयवाद का प्रतिपादन करके जैनाचार्यों एवं काण्ट ने समाज का बहुत बड़ा उपकार किया । किन्तु पाश्चात्य समाज ने काण्ट को जो श्रेय प्रदान किया, वह भारतीय समाज के द्वारा जैनाचार्यों को नहीं मिला । काण्ट ने बुद्धिवाद और अनुभववाद में जो सामंजस्यता स्थापित १. पाश्चात्य दर्शन, पृ० १६०
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