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कविवर बनारसीदास और जीवन-मूल्य
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अद्भुत अनन्त बाल चितवन, सांत सहज वैराग धुव ।
नवरस विलाश परगास, तव, जब सुबोध घट प्रगट हुव । अर्थात् आत्मा को ज्ञान से विभूषित करने का विचार शृगार रस है, कर्म निर्जरा का उद्यम वीर रस है, अपने ही समान सब जीवों को समझना करुण रस है, मन में आत्म-अनुभव का उत्साह हास्य रस है, अष्ट कर्मों को नष्ट करना रौद्र रस है, शरीर की अशुचिता विचारना वीभत्स रस है; जन्म-मरण आदि दुःख चितवन करना भयानक रस है। आत्मा की अनन्त शक्ति चितवन करना अद्भुत रस है, दृढ़ वैराग्य धारण करना शान्त रस है। सो जब हृदय में सम्यक्त्व प्रकट होता है तब इस प्रकार सब रस का विकास प्रकाशित होता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बनारसीदास का जीवन-दर्शन सरलता, स्पष्टता, सरसता और साहस शीलता पर आधारित है। सचमुच वे सरस्वती के सच्चे उपासक थे। किसी संस्कृत कवि ने ठीक ही कहा है
सरसौ विपरीतश्चेत, सरसत्त्वं न मुच्चति ।
साक्षरा विपरीतश्चेत् राक्षसा एव निश्चिता ॥ अर्थात् जो सरस्वती का उपासक होता है. वह विपरीत परिस्थितियों में भी, अपनी सरलता को नहीं छोड़ता, सरस को उल्टा-सीधा कैसे भी पढ़ो, वह सरस ही बना रहता है, पर जो केवल साक्षर होता है, जिससे ज्ञान को पचाया नहीं है, वह किंचित् विपरीत परिस्थितियाँ आते ही सिद्धान्तविहीन हो जाता है, बदल जाता है. उल्टा हो जाता है अर्थात् राक्षस बन जाता है।
बनारसीदास का जीवन विपरीत परिस्थितियों और विषमताओं से भरा-पूरा जीवन है। पर समभाव से, सहज विनोद वृत्ति से वे उनसे पार होते रहे। कभी उफ तक नहीं किया। सचमुच ज्ञान को उन्होंने अनुभव में उतार लिया था। इसीलिये वे चार सौ वर्ष बीतने पर भी आज सरस बने हुए हैं। ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा, उनकी सरसता और अधिक स्निग्ध व जाती बनती जायेगी।
सी०-२३५ ए तिलकनगर
जयपुर-३००२०४
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