________________
१४८
प्रा० डॉ० एच० यु० पण्डेया २, ३. विनय एवं वैयावृत्त्य वैदिक परंपरासंमत आचार्योपासनरूप ज्ञान का एक __ लक्षण है।' ४. स्वाध्याय गीता सम्मत वाचिक तप है। ५. व्युत्सर्ग में बाह्य वस्तुओं एवं क्रोधादि दोषों का त्याग है, जो वैदिक परंपरा
सम्मत है। ६. चतुर्विध ध्यानगत पृथक्त्व वितर्क और एकत्व वितर्क पातंजलयोग की संप्रज्ञात
समाधि है।
इस विचारणा के आधार पर हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि जैनाचार्यों ने वैदिक परंपरा के इस मार्ग का, बिना किसी पूर्वाग्रह के, तलस्पर्श अभ्यास करके, जो बातें अपने मत के अनुकल थीं, उनको स्वीकार करके, परंपरा प्राप्त एतद्विषयक विचारों का क्रमशः स्पष्टीकरण, शुद्धीकरण एवं विस्तृतीकरण करते हुए, तप का संबंध मन एवं आत्मा के साथ जोड़ने का सजग तथा सयुक्तिक परिश्रम किया है। अस्तु ( औपपातिक सत्र का तपनिरूपण विभाग तत्वार्थसूत्र के बाद के समय का है)।
TET
सन्दर्भ ग्रंथ सूची आह्निक सूत्रावली - निर्णय सागर प्रेस-चतुर्थ संस्करण उत्तररामचरितम् - नाटकम् औपपातिक सूत्र - संपादक श्री मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ऋग्वेद सं
- सायण भाष्य-वैदिक संशोधन मंडल, पुणे, द्वितीय संस्करण किरातार्जुनीयम् - भारवि-मल्लिनाथ कृतव्याख्या-निर्णय सागर प्रेस ई० सं० १९४२ कुमारसंभवम् - कालिदास केनोपनिषद् - शांकरभाष्य-गीता प्रेस, गोरखपुर, प्रथम संस्करण गीता
- भगवद्गीता ठाणांग तत्त्वार्थसूत्र - तत्त्वार्थाधिगम सूत्रम्-स्वोपज्ञभाष्य-बंगाल एशियाटिक सोसायटी,
कलकत्ता, संवत् १९५९ तत्त्वार्थसर्वार्थसिद्धि - जैनेन्द्र मुद्रणालय, कोल्हापुर, द्वितीय संस्करण तत्त्वार्थवार्तिक
- राजवार्तिक-भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ई० सं० १९४४ पातंजलयोगसूत्र - योगदर्शन तथा योगविंशिका-संपादक पं० सुखलालजी, जैन
आत्मनन्द सभा, भावनगर, ई० सं० १९५२ पातंजलयोगसूत्र - योग दर्शन-व्यासभाष्य-व्याख्याकार ब्रह्मलीन मुनि, चौखम्बा
प्रकाशन ई० सं० १९७०
१. भगवद्गीता १३१७ २. पातंजल योगदर्शन, यशोविजयकृत वृत्ति १११७-१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org