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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
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मूलाचार और उत्तराध्ययन के अनुसार, मध्याह्न या दिन का तीसरा प्रहर आहार काल बैठता है । कृषकों के देश में यह काल उचित ही है । पर वर्तमान में आहार काल प्रायः पूर्वाह्न १२ बजे के पूर्व ही समाप्त हो जाता है। महाप्रज्ञ' का मत है कि वास्तविक आहार काल रसोई बनने के समय के अनुरूप मानना चाहिए जो क्षेत्रकाल के अनुरूप परिवर्तनशील होता है।
शास्त्रों में रात्रिभोजन के अनेक दोष बताये गये हैं। प्रारम्भ में आलोकित-पानभोजन के रूप में इसकी मान्यता थी। तैल-दीपी रात्रि में विद्यत की जगमगाहट आ जाने से प्राचीन युग के अनेक दोष काफी मात्रा में कम हो गये हैं। इसलिए यह विषय परम्परा के बदले सुविधा का माना जाने लगा है। फिर भी स्वस्थ, सुखी एवं अहिंसक जीवन की दष्टि से इसकी उपयोगिता को कम नहीं किया जा सकता। इसीलिए इसे जैनत्व के चिह्न के रूप में आज भी प्रतिष्ठा प्राप्त है।
आहार काल और अन्तराल की जैन मान्यता विज्ञान-समर्थित है। आहार का प्रमाण
सामान्य जन के आहार का प्रमाण कितना हो, इसका उल्लेख शास्त्रों में नहीं पाया जाता। परन्तु भगवती आराधना, मूलाचार, भगवती सूत्र, अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों में साधुओं के आहार का प्रमाण बताते हुए कहा है कि पुरुष का अधिकतम आहार-प्रमाण ३२ ग्रास प्रमाण एवं महिलाओं का २४ ग्रास प्रमाण होता है। औपपातिकसूत्र' में आहार के भार का 'ग्रास' यूनिट एक सामान्य मुर्गी के अण्डे के बराबर माना गया है जबकि वसूनंदि ने मुलाचारवत्ति में इसे एक हजार चावलों के बराबर माना है। अण्डे के भार को मानक मानना आगमयुग में इसके प्रचलन का निरूपक है। बाद में सम्भवतः अहिंसक दृष्टि से यह निषिद्ध हो गया और तंडुल को भार का यूनिट माना जाने लगा यह तंडुल भी कौन-सा है, यह स्पष्ट नहीं है। पर तंडुल शब्द से कच्चा चावल ग्रहण करना उपयुक्त होगा। सामान्यतः एक अण्डे का भार ५०-६० ग्राम माना जाता है : फलतः मनुष्य के आहार का अधिकतम दैनिक प्रमाण ३२४५०-१६०० ग्राम तथा महिलाओं के आहार-प्रमाण २८-५०=१४०० ग्राम आता है। बीसवीं सदी के लोगों के लिए यह सूचना अचरज में डाल सकती है, पर पदयात्रियों के युग में यह सामान्य ही मानी जानी चाहिए। इसके विपर्यास में एक हजार चावल के यूनिट का भार १२-१५ ग्राम होता है, इस आधार पर पुरुष का आहार-प्रमाण ३२४१५-४८० ग्राम और महिला का आहार-प्रमाण २८४ १५:४२० ग्राम आता है। यह कुछ अव्यावहारिक प्रतीत होता है। यह 'यूनिट' संशोधनीय है। प्रमाण के विषय में 'ग्रास' के यूनिट को छोड़कर शास्त्रों में कोई मतभेद नहीं पाया जाता।
टार का यह प्रमाण प्रमाणोपेत. परिमित व प्रशस्त कहा गया है। एकभक्त साध के लिए यह एक बार के आहार का प्रमाण है, सामान्य जनों के लिए यह दो बार के भोजन १. महाप्रज्ञ, युवाचार्य (मं०); दशवैकालिक, जैन विश्वभारती, लाडनूं १९७४, पृ० १९५ २. स्थविर; औपपातिक सूत्र, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर, १९८२, पृ० ४७, ५२ ३. मूलाचार पृ० २८६
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