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डा. जयकुमार जैन __ यशस्तिलकचम्पू के संस्कृत टीकाकार श्रुतसागरभूरि ने वादिराज और वादीभसिंह को सोमदेवाचार्य का शिष्य बतलाते हुए लिखा है- “स वादिराजोऽपि श्री सोमदेवाचार्यस्य शिष्यः ।" "वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः, वादिराजोऽपि मदीय शिष्यः" इत्युक्तत्वात् ।' इसके पूर्व श्रुतसागरसूरि ने "उक्त च वादिराजेन" कहकर एक पद्य उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है--
कर्मणा कवलितो सोऽजा तत्पुरान्तर जनांगमवाटे ।
कर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः ॥२
यह श्लोक वादिराजसूरिकृत किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलता है और न ही अन्य ग्रंथों में ही। सोमदेवसूरि के नाम से उल्लिखित "वादीभसिंहोऽपि मदीयशिप्यः वादिराजोऽपि मदीयशिष्यः" वाक्य का उल्लेख भी उनकी किसी भी रचना ( यश०, नीतिवा०, अध्यात्मतरंगिणी ) में नहीं है। अतः वादिराज का सोमदेवाचार्य का शिष्यत्व सर्वथा असंगत है। यशस्तिलकचम्पू का रचनाकाल चैत्रशुक्ला त्रयोदशी शक सं ८८१ (९५९ ई० ) है जबकि बादिराज के पार्श्वनाथचरित का प्रणयनकाल शक सं०९४७ (१०२५ ई०) है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों के रचनाकाल का ६६ वर्षों का अन्तर भी दोनों के गुरु-शिष्यत्व में बाधक है।
शाकटायन व्याकरण की टीका "रूपसिद्धि" के रचयिता दयापाल मुनि वादिराज के सतीर्थ ( सहाध्यायी या सधर्मा ) थे। मल्लिषेणप्रशस्ति में वादिराज के सतीर्थों में पुष्पसेन और श्रीविजय का भी नाम आया है। किन्तु इन दोनों का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । हुम्मच के इन शिलालेखों में द्राविड़संघ की परम्परा इस प्रकार दी गई है-~
मौनिदेव
विमलचन्द्र भट्टारक कनकसेन वादिराज ( हेमसेन )
दयापाल
वादिराज
श्रीविजर
पुष्पसेन गुणसेन
श्रेयांसदेव कमलभद्र
अजितसेन (वादीभसिंह) कुमारसेन १. यशस्तिलकचम्पू (सम्पा०-सुन्दरलाल शास्त्री) क्षुतसागरी टीका, द्वितीय आश्वास, पृ० २६५ २. वही, पृ० २६५ ३. शकनृपकालातीतसंवत्सरशतेष्वष्टस्वेकाशीत्यधिकेषु गतेषु अंकतः सिद्धार्थसंवत्सरान्तर्गतचैत्रमासमदन
त्रयोदश्याम्...... I -यशस्तिलकचम्पू, पृ. ४८ । ४. पार्श्वनाथचरित, प्रशस्तिपद्य ५ ५. द्रष्टव्य-जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेखांक २१३-२१६ ६. वही भाग ३ की डा० गुलाबचन्द्र चौधरी द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ० ३८ से उद्धृत
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