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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
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के आहार - विज्ञानियों ने जीव शरीर की कोशिकीय संरचना और क्रियाविधि के आधार पर सारिणी २ में दिये गये आहार के तीन अतिरिक्त उद्देश्य भी बताये हैं । इनका उल्लेख शास्त्रों में प्रत्यक्षतः नहीं पाया जाता। वैज्ञानिक शरीर की स्थिति के अतिरिक्त विकास, सुधार व पुनर्जन्म हेतु भी आहार को आवश्यक मानते हैं । यह तथ्य मानव की गर्भावस्था से बालक, कुमार, युवा एवं प्रौढ़ावस्था के निरन्तर विकासमान रूप तथा रुग्णता या कुपोषण समय आहार की गुणवत्ता के परिवर्तन से होने वाले लाभ से स्पष्ट होता है ।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही वैज्ञानिकों ने पाया कि कोई कार्य, गति या प्रक्रिया भीतरी या बाहरी ऊर्जा के बिना नहीं हो सकती । शरीर-संबंधित उपरोक्त कार्य भी ऊर्जा के बिना नहीं होते । इसलिये यह सोचना सहज है कि आहार के विभिन्न अवयवों से शरीर के विभिन्न कार्यों के लिये ऊर्जा मिलती है । यह ऊर्जा प्रदाय उसके चयापचय में होने वाले जीवरासायनिक, शरीर क्रियात्मक एवं रासायनिक परिवर्तनों द्वारा होता है । यह ज्ञात हुआ है कि सामान्य व्यक्ति के लिये उपरोक्त लक्ष्यों की पूर्ति के लिये लगभग दो हजार कैलोरी ऊर्जा की आवश्यकता होती है । अतः हमारे आहार का एक लक्ष्य यह भी है कि उसके अन्तर्ग्रहण एवं चयापचय से समुचित मात्रा में ऊर्जा प्राप्त हो। इस प्रकार, वैज्ञानिक दृष्टि से आहार ऐसे पदार्थों या द्रव्यों का अन्तर्ग्रहण है जिनके पाचन से शरीर की सामान्य विशेष क्रियाओं के लिये ऊर्जा मिलती रहे । यह परिभाषा शास्त्रीय परिभाषा का विस्तृत एवं वैज्ञानिक रूप है । इसमें गुणात्मकता के साथ परिमाणात्मक अंश भी इस सदी में समाहित हुआ है ।
आहार के भेद-प्रभेद
जैन शास्त्रों में आहार को दो आधारों पर वर्गीकृत किया गया है : (१) आहार में प्रयुक्त घटक और ( २ ) आहार के अन्तर्ग्रहण की विधि । प्रथम प्रकार के वर्गीकरण को सारिणी ३ में दिया गया है । इससे प्रकट होता है कि मुख्यतः आहार के चार घटक माने गये हैं जिनमें कहीं कुछ नाम व अर्थ में अन्तर है । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में आहार के केवल दो ही घटक माने जाते थे । भक्त (ठोस खाद्य पदार्थ) और पान ( तरल खाद्य पदार्थ ) या पान और भोजन ( भक्तपान, पान - भोजन ) । यह शब्द भी कब - कैसे हुआ, यह अन्वेषणीय है । प्रज्ञापनार में सजीव (पृथ्वी, जलदि), निर्जीव ( खनिज, लवणादि ) एवं मिश्र प्रकार के त्रिघटकी आहार बताये गये हैं । इससे प्रतीत होता है कि आहार के घटकगत चार या उससे अधिक भेद उत्तरवर्ती हैं। डा० मेहता ने आवश्यकसूत्र का उद्धरण देते हुए औषध एवं भेषज को भी आहार के अन्तर्गत समाविष्ट करने का सुझाव दिया है । इनमें अशन और खाद्य एकार्थक लगते हैं । पर दो पृथक् शब्दों से ऐसा लगता है कि अशन से पक्वान्न ( ओदनादि ) का और खाद्य से कच्चे ही खाये जाने वाले पदार्थों ( खजूर, शर्करा ) का बोध होता है । पर एकाधिक स्थान में पुआ, लड्डू आदि को भी इसके उदाहरण के रूप में दिया गया है । अतः अशन और खाद्य के अर्थों में स्पष्टता अपेक्षित है । इसी प्रकार अशन, खाद्य और भक्ष्य के अर्थ भी स्पष्टता
१. उत्तराध्ययन, पृ० १५७
२. आर्यश्याम, प्रज्ञापनासूत्र
३. डा० मेहता, मोहन लाल; जैन आचार, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, काशी १९६६, पृ० १६६
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