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प्रो० नन्दलाल जैन
सारिणी २ : आहार के शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक लाभ ( अ ) भौतिक लाभ : शास्त्रीय दृष्टिकोण वैज्ञानिक दृष्टिकोण
(i) शरीर में बल ( ऊर्जा ) बढ़ता है। (i) आहार शरीर की मूलभूत एवं विशिष्ट (ii) जीवन का आयुष्य बढ़ता है। क्रियाओं में सहायक होता है। (iii) शरीर-तन्त्र पुष्ट ( कार्यक्षम ) (ii) यह शरीर कोशिकाओं के विकास, __ रहता है।
___संरक्षण व पुनर्जनन में सहायक होता है । (iv) शरीर की कान्ति बढ़ती है। (iii) यह रोग प्रतीकार क्षमता देता है। (v) जीवन सुस्वादु होता है।
(iv) शरीर की कार्य प्रणाली को संतुलित (vi) भूख की प्राकृतिक अभिलाषा शांत एवं नियन्त्रित करता है। __ होती है।
(v) यह शारीरिक क्रियाओं को आवश्यक (vii) दशों प्राण संघारित रहते हैं।
ऊर्जा प्रदान करता है। (viii) आहार औषध का कार्य भी
करता है। (ix) इससे संयमपूर्वक चलन-फिरन
क्रिया होती रहती है। (x) इससे तप और ध्यान में सहा
यता मिलती है। ( ब ) आध्यात्मिक लाभ
(i) यह चरम आध्यात्मिक लक्ष्य ( मोक्ष ) प्राप्ति का साधन है। ( ii ) यह धर्मपालन के लिए आवश्यक है। (ii) इससे ज्ञान प्राप्ति में सहायता मिलती है।
आशाधर' के अनुसार शरीर की स्थिति के लिए आहार आवश्यक है । स्थानांग में आहार से मनोज्ञता, रसमयता, पोषण, बल, उद्दीपन और उत्तेजन की बात कही है। शारीरिक बल पुष्टि, कांति और रोगप्रतिकार क्षमता का ही प्रतीक है। स्वामिकुमार तो क्षुधा और तृषा को प्राकृतिक व्याधि ही मानते हैं। उनके अनुसार, आहार से प्राणधारण और शास्त्राभ्यास दोनों संभावित हैं। कुन्दकुंद भी यह मानते हैं कि आहार ही मांस, रुधिर आदि में परिणत होता है। फलतः यह स्पष्ट है कि आहार के शास्त्रीय उद्देश्य वे ही हैं जिन्हें हम प्रतिदिन अनुभव करते हैं। इन्हें यदि आधुनिक भाषा में कहा जावे तो यह कह सकते हैं कि शरीरतन्त्र में सामान्यतः दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं : सामान्य एवं विशेष । सामान्य क्रियाओं में श्वासोच्छवास या प्राणधारण की क्रिया, पाचन-क्रिया आदि तथा विशेष क्रियाओं में आजीविका सम्बन्धी कार्य, लिखना-पढ़ना, श्रम, तप, साधना आदि समाहित हैं। आज १. आशाधर; अनागार धर्मामृत, वही १९७७, पृ० ४९५ २. - ठाणं, जैन विश्वभारती, लाडनूं ३. स्गमि, कुमार; स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, रायचंद्र आश्रम, अगास १९०८, पृ० २६४ ४. कुदकुद; समयसार, सी० जे० पब्लिशिंग हाउस लखनऊ, १९३०, पृ० १०९
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