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रज्जन कुमार
क्योंकि समाधिमरण इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। समाधिमरण एक साधना है, इसीलिए यह जीवनमुक्त के लिए आवश्यक नहीं है । जीवनमुक्त को तो समाधिमरण सहज ही प्राप्त होता है। जहाँ तक इस आक्षेप की बात है कि समाधिमरण में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित होता है, उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है, लेकिन इसका संबंध समाधिमरण के सिद्धांत से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में प्रचलित विकृत रूप से है। लेकिन इस आधार पर इसके सैद्धांतिक मूल्य में कोई कमी नहीं आती है। यदि व्यावहारिक जीवन में अनेक व्यक्ति असत्य बोलते हैं तो क्या उससे सत्य के मूल्य पर कोई आँच आती है ? वस्तुतः समाधिमरण के सैद्धांतिक मूल्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
संभवतः आलोचकों द्वारा समाधिमरण को अनैतिक और जीवन से पलायन करने वाला व्रत कहा गया है। यह समाधिमरण और आत्महत्या के मूल अंतर को नहीं समझ पाने के कारण ही है। आत्महत्या जहाँ भावना से ग्रसित रहती है वहीं समाधिमरण में भावना का कोई स्थान नहीं है। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने के कारण प्राण-त्याग करता है। इस तरह वह जीवन से पलायन करता है। आत्महत्या करने वाले की कोई सीमित योग्यता नहीं होती । इसे वृद्ध, जवान, बच्चे, स्त्री, पुरुष सभी ग्रहण करते हैं। लेकिन समाधिमरण में सर्वप्रथम अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं आदि को साधना, तप के द्वारा शांत किया जाता है । भावना पर विजय प्राप्त की जाती है। इसके बाद मृत्यु का सहर्ष स्वागत करते हुए उसे अंगीकार कर लिया जाता है। समाधिमरण करने के लिए योग्यता की भी आवश्यकता होती है। वृद्ध, असाध्यरोग से ग्रस्त तथा अनिवार्य मरण की स्थिति से पीड़ित व्यक्ति ही समाधिमरण ग्रहण कर सकता है। बच्चे, जवान, स्वस्थ व्यक्ति समाधिमरण नहीं ग्रहण कर सकते है। थोड़े से में यही कहा जा सकता है कि मरण की अनिवार्य स्थिति में समाधिमरण ग्रहण किया जाता है। यह जीवन से पलायन नहीं है । वस्तुतः समाधिमरण मृत्यु का साहसपूर्ण एवं अनासक्त भाव से किया गया स्वागत है।
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बी० एल०-रिसर्च एसोसिएट c/o पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान :
वाराणसी५
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