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समाधिमरण जीवन से भागना नहीं
भारतीय नैतिक चिन्तन में जीने की कला के साथ-साथ मृत्यु की कला पर भी व्यापक चर्चा हुई है। मृत्यु की कला को जीने की कला से अधिक महत्त्व दिया गया है । जीने की कला की तुलना विद्यार्थी जीवन के अध्ययन काल से तथा मरने की कला की तुलना परीक्षा के काल से की गई है। इसी कारण भारतीय नैतिक चिन्तकों ने मरण काल में अधिक सजग रहने का निर्देश दिया है क्योंकि यहाँ चूक जाने पर पश्चात्ताप ही होता है । मृत्यु का अवसर ऐसा अवसर है जहाँ व्यक्ति अपने भावी जीवन का चुनाव करता है। जैन परम्परा में खंदक मुनि ने अपने जीवन काल में कितने ही साधक शिष्यों को मुक्ति दिलाई और स्वयं ही अंतिम समय क्रोध के कारण अपनी साधना पथ को बिगाड़ लिया। वैदिक परंपरा में भरत का कथानक भी यही बतलाता है कि इतने महान् साधक की भी मरण बेला में हिरण पर आसक्ति के कारण पशु योनि में जाना पड़ा।'
___ डा० फलचन्द्र जैन बरैया ने भी समाधिमरण का समर्थन किया है। इनके अनुसार समाधिमरण आत्महत्या नहीं आत्मरक्षा है। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये कहते हैं कि जैन मुनियों ने इस शरीर को केवल हाड़-मांस का पिंजरा न समझकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र का दिव्य प्रकाश पुंज माना है। मानव पर्याय को समस्त पर्यायों से मूल्यवान् माना है, क्योंकि इसी पर्याय में दुःख की अंतिम निवृत्ति हो सकती है । अतः इस महान् दुर्लभ मानव शरीर को पाकर इस मरण के दुःख से छुटकारा पाया जा सकता है। मृत्यु कब और किस समय आ जाए इसका कोई निश्चित समय नहीं है। अतः इस पर्याय को सफल बनाने के लिए सर्वदा कठोर व्रत, तप आदि की ओर उन्मुख होना चाहिए और आगमानुसार समाधिमरण व्रत का पालन करते हुए शरीर का त्याग करना चाहिए।
बहुत से विचारकों ने समाधिमरण को आत्महत्या की कोटि में रखकर इस पर आक्षेप लगाए हैं। डॉ० ईश्वरचन्द्र जीवनमुक्त व्यक्ति के स्वेच्छामरण को आत्महत्या नहीं माना है लेकिन समाधिमरण को आत्महत्या की कोटि में रखकर उसे अनैतिक बताया है। इस संबध में उन्होंने तर्क भी दिए हैं। उनका पहला तर्क है कि समाधिमरण लेने वाला जैन मुनि जीवनमुक्त एवं अलौकिक शक्तियों से युक्त नहीं होता है। अपूर्णता की इस स्थिति में अनशन का जो व्रत उसके द्वारा लिया जाता है वह नैतिक नहीं हो सकता । अपने तर्क के दूसरे भाग में समाधिमरण में जो स्वेच्छामृत्यु ग्रहण किया जाता है उसमें यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर का होना बताया है।३ डॉ० सागरमल जैन समाधिमरण का समर्थन करते हुए निम्न तर्क प्रस्तुत किए हैं. ४ डॉ० जैन के अनुसार जीवनमुक्त एवं अलौकि व्यक्ति ही समाधिमरण का अधिकारी नहीं है । वस्तुतः स्वेच्छामरण उस व्यक्ति के लिए आवश्यक नहीं है जो जीवनमुक्त है और जिसकी देहासक्ति समाप्त हो गयी है, वरन् उस व्यक्ति के लिए जिसमें देहासक्ति शेष है।
१. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० ४४३ २. जैन मित्र वर्ष ५७, पृ० १३६ ३. पश्चिमीय आवार बिज्ञान का आलोचनात्मक अध्ययन पृ० २७३ ४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ० ४४४-४५
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