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जैन शास्त्रों में आहार विज्ञान
प्रो० नन्दलाल जैन
भारतीय संस्कृति में धर्म को एक विशेष प्रकार की जीवनपद्धति माना गया है । यही कारण है कि इसमें गर्भ से मृत्युतक, पूर्वजन्म से उत्तर-जन्मतक, प्रातःकाल से दूसरे सूर्योदय तक के सभी भौतिक और आध्यात्मिक विषय चार वर्गों में (कथा पुराण, आचार शास्त्र, लौकिक विद्यायें और गणित ) विभाजित कर संक्षेप से लेकर अतिविस्तार तक प्रतिपादित किये गये हैं । इसका केन्द्रबिन्दु मुख्यतः मानव-जाति है पर मानवेतर समुदायों की चर्चा भी इसमें पर्याप्त मात्रा में है । विश्व में विद्यमान मानव एवं मानवेतर समुदायों की समग्र संज्ञा 'जीव' है । पहले जीव और जीवन शब्दों में विशेष अन्तर नहीं माना जाता था, 'सव्वेसिं जीवनं पियं', पर अब जीव ( Living ) को सादि सान्त ( संसारी ) और जीवन ( Life ) अनादि - अनन्त कहते हैं । हम यहाँ जीव की एक अनिवार्य आवश्यकता आहार के विषय में चर्चा करेंगे क्योंकि इसके बिना वह संसार में अधिक दिनों तक नहीं टिक सकता । धर्म और अध्यात्म को भी विकसित नहीं कर सकता । संसार की कष्टमयता के वर्णन के बावजूद भी प्रत्येक प्राणी उसके बाहर नहीं जाना चाहता । शास्त्रों में जीव में मृत्यु के प्रति निर्भयता का दृष्टिकोण विकसित किया गया है, पर सामान्य मानव प्रकृति अभी भी मृत्यु को टालना ही चाहती है । इसलिये वह उसके कारणों पर विजय प्राप्त कर अतिजीविता को प्रश्रय देता लगता है । ये प्रयत्न इस बात के प्रतीक हैं कि वह संसार और उसके परिवेश को दुःखमय मानने की शास्त्रीय शिक्षा को तात्त्विक महत्त्व नहीं देता दिखता । लगता है, उसे यहाँ सुख अधिक और दुःख कम प्रतीत होते हैं । वह अंतस् से स्वामी सत्यभक्त की ऐसी मान्यता से अधिक प्रभावित लगता है । "
आहार की दृष्टि से जीवों की दो श्रेणियाँ माननी चाहिये : प्रथम श्रेणी में सभी प्रकार की वनस्पति आते हैं । ये अपना आहार स्वयं बनाते हैं (स्वयं पोषी ) । दूसरी श्रेणी में त्रसजीव आते हैं । ये अन्य जीवों को अपना आहार बनाते हैं (परपोषी । आहार सभी जीवों के अस्तित्व एवं अतिजीविता के लिये अनिवार्य आवश्यकता है । इसके विषय में जैन शास्त्रों में पर्याप्त विवरण मिलता है । वहाँ इसे आहार वर्गणा, आहार पर्याप्ति, आहारक शरीर, आहार प्रत्याख्यान, आहार परीषह, आहार दान आदि के रूप में सहचरित किया गया है । ये पद आहार के विभिन्न रूपों व फलों को प्रकट करते हैं। प्रारंभ में, समाज के मार्ग दर्शक साधु एवं आचार्य होते थे । वे प्रायः साधुधर्म का ही उपदेश करते थे । इसीलिये प्राचीन शास्त्रों में साधुआचार की ही विशेष चर्चा पाई जाती है । आचारांग, दशवैकालिक, मूलाचार, भगवती आराधना आदि श्रावकाचार के विषय में मौन हैं। तथापि अनेक आचार्यों ने श्रावकधर्म पर ध्यान दिया है। उन्होंने उसे द्वादशांगी में उपासकदशा नामक सप्तम अंग बताया है । यह स्पष्ट है कि साधुओं की तुलना में श्रावकों की स्थिति द्वितीय है, अतः उनसे सम्बन्धित उप
१. स्वामी सत्यभक्त, संगम, मई १९८७
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