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जिनेन्द्र कुमार जैन वैदिक दर्शन की समीक्षा-महाकवि पुष्पदन्त ने प्रस्तुत ग्रन्थ में याज्ञिकी हिंसा, मांसभक्षण एवं रात्रि भोजन को पुण्य का प्रतीक मानने वाले वेद पुराण सम्बन्धी ब्राह्मणों की मान्यता की आलोचना करते हुए कहा है कि--"मृगों का आखेट करने वाला जो मांस-भक्षण से अपना पोषण करता है, वह अहिंसा की घोषणा क्या कर सकता है ? ( पुरोहित ) मद्यपान और मांसभक्षण करता है तथा रात्रिभोजन को पुण्य कहता है, जिह्वा का लोलुपी होता हुआ तनिक भी विचार नहीं करता । अतः जगत् में वेद प्रमाण नहीं हो सकते। क्योंकि बिना जीव के कहीं (प्रमाणभूत ) शब्द की प्राप्ति हो सकती है ? बिना सरोवर के नया कमल कहाँ से उत्पन्न हो सकता है।"२ कवि ने हिंसा के खण्डन के लिए अपना लक्ष्य मुख्यतः उन ब्राह्मणों को बनाया है, जो यज्ञों में पशुबलि करते हैं तथा मांस-भक्षण करते हैं। उनकी मान्यता है कि देवों और पूर्वजों की संतुष्टी के लिए पशुबलि करना उचित है और इसको करने वाले स्वर्ग के अधिकारी होते हैं । इसी प्रसंग में ब्राह्मणमत का खण्डन करते हुए कवि कहता है कि-यज्ञ में पितविधि का बहाना लेकर, तीक्ष्ण कटार से काटकर विशेष प्रकार के मांस रस का भक्षण करते हए समस्त जीवों का भक्षण कर डाला अर्थात् सबको सच्चे धर्म से भ्रष्ट कर दिया। रुद्र ब्रह्म आदि सब देवों को स्वयं देखा तथा ब्रह्मचर्य एवं वेदविहित क्रियाकाण्ड का स्वयं पालन किया, किन्तु जल से धोने मात्र से कोयला श्वेत होता है ? या मनुष्य-देह पवित्र हो सकता है।
महापुराण एवं जसहरचरिउ में भी वैदिक दर्शन के इस हिंसात्मक मत की समीक्षा मिलती है-"पशुओं का वध करके पितृपक्ष पर द्विज पंडित मांस खाते हैं। अतः हिंसा-दंभ तो इनसे पूर्णतः लिपटे हैं, तब देह को जल से धोने से क्या होगा ? कहीं अंगार दूध से होने से श्वेत हो सकता है। जसहरचरिउ में कवि ने पशुबलि के सम्बन्ध में कहा है कि जगत में धर्म का मूल वेद-मार्ग है। वेद में देव-तुष्टि के लिए पशुबलि करना उचित माना गया है और इसको करने वाले स्वर्ग के अधिकारी होते हैं । इसकी समीक्षा करते हुए कवि कहता है किचाहे कोई पुण्य अर्जन हेतु मंत्र-पूजित खड्ग से पशुबलि करे, यज्ञ करे अथवा अनेक दुर्धर तपों का आचरण करें। परन्तु जीव दया के बिना सब निष्फल है। कोटि शास्त्रों का सार यही है कि जो पाप है वह हिंसा है। जो धर्म है वह अहिंसा है। इसीलिए कवि ने प्राणिबध को आत्मबध के समान माना है।
वैदिक मान्यतानुसार तत्त्व एक ही है, वह है-'ब्रह्म' जो नित्य है। इस मान्यता की समीक्षा करते हुए कवि कहता है कि-"यदि ऐसा होता तो एक जो देता है, उसे दूसरा कैसे १. णायकुमारचरिउ-०८1१ २. णायकुमारचरिउ-९।८।६-९
__णायकुमारचरिउ-९।९।७-१० ४. महापुराण-७१८१९-१३ ५. जसहरचरिउ–२।१८ ६. पाणिबहु भडारिए अप्पबहु-जसहरचरिउ-२।१४।६ ७. णायकुमारचरिउ-९।१०।३
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